 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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दोनों का स्वभाव ही अलग-अलग है। एक जड़ है, एक चेतन। एक नाशवान् है, एक अविनाशी, एक विकारी है, एक निर्विकार एक में प्रतिक्षण परिवर्तन होता है और एक अनन्तकाल तक ज्यों-का-त्यों ही रहता है 'भूतग्रामः स एवायम्', 'सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च'।
शरीर और शरीरी- दोनों ही अशोच्य हैं। शरीर का निरंतर विनाश होता है; अतः उसके लिये शोक करना नहीं बनता और शरीरी का विनाश कभी होता ही नहीं; अतः उसके लिये भी शोक करना नहीं बनता। शोक केवल मूर्खता से होता है।
शरीर की निरंतर सहज निवृत्ति है और शरीरी निरंतर सबको प्राप्त है। शरीर और शरीरी के इस विभाग को जानने वाले विवेकी मनुष्य मृत अथवा जीवित किसी भी प्राणी के लिये कभी शोक नहीं करते। उनकी दृष्टि में बदलने वाले शरीर का विभाग ही अलग है और न बदलने वाले शरीरी अर्थात स्वरूप की सत्ता का विभाग ही अलग है।
गीता का उपदेश शरीर और शरीरी के भेद से आरम्भ होता है। दूसरे दार्शनिक ग्रन्थ तो आत्मा और अनात्मा का इदंता से वर्णन करते हैं, पर गीता इदंता से आत्मा अनात्मा का वर्णन न करके सबके अनुभव के अनुसार देह-देही, शरीर शरीरी का वर्णन करती है। यह गीता की विलक्षणता है।
साधक अपना कल्याण चाहता है तो उसके लिये सबसे पहले यह जानना आवश्यक है कि 'मैं कौन हूँ। अर्जुन ने भी अपने कल्याण का उपाय पूछा है- 'यच्छ्रेयः स्यानिश्चितं ब्रूहि तन्मे'। देह और देही का भेद स्वीकार करने से ही कल्याण हो सकता है।
जब तक 'मैं देह हूँ'- यह भाव रहेगा, तब तक कितना ही उपदेश सुनते रहें, सुनाते रहें और साधन भी करते रहें, कल्याण नहीं होगा।
जो वस्तु अपनी न हो, उसको अपना मान लेना और जो वस्तु वास्तव में अपनी हो, उसको अपना न मानना बहुत बड़ी भूल है। अपनी वस्तु वही हो सकती है, जो सदा हमारे साथ रहे और हम सदा उसके साथ रहें।
शरीर एक क्षण भी हमारे साथ नहीं रहता और परमात्मा निरन्तर हमारे साथ रहते हैं। कारण कि शरीर की सजातीयता संसार के साथ है और हमारी अर्थात शरीरी की सजातीयता परमात्मा के साथ है। इसलिये शरीर को अपना मानना और परमात्मा को अपना न मानना सबसे बड़ी भूल है।
इस भूल को मिटाने के लिये भगवान गीता में सबसे पहले शरीर-शरीरी के भेद का वर्णन करते हैं और साधक को उद्बोधन करते हैं कि जिसकी मृत्यु होती है, वह तुम नहीं हो अर्थात् तुम शरीर नहीं हो। तुम ज्ञाता (जानने वाले) हो, शरीर ज्ञेय (जानने में आने वाला) है। तुम सर्वदेशीय हो–'नित्यः सर्वगतः', 'येन सर्वमिदं ततम्', शरीर एकदेशीय है।
तुम चिन्मय लोक के निवासी हो, शरीर जड़ संसार का निवासी है। तुम मुझ परमात्मा के अंश हो-'ममैवांशो जीवलोके', शरीर प्रकृति का अंश है- 'मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि'। तुम निरंतर अमृता रहते हो, शरीर निरंतर मृत्यु में रहता है।
शरीर की क्षति से तुम्हारी किंचिन्मात्र भी क्षति नहीं होती। अतः शरीर को लेकर तुम्हें शोक, चिन्ता, भय आदि नहीं होने चाहिये।
शरीरी किसी शरीर से लिप्त नहीं है, इसलिए उसको सर्वव्यापी कहा गया है- 'सर्वगतः', 'येन सर्वमिदं ततम्'। तात्पर्य हुआ कि साधक का स्वरूप सत्ता मात्र है; अतः वास्तव में वह शरीरी (शरीर वाला) नहीं है, प्रत्युत अशरीरी है।
इसलिए भगवान ने उसको अव्यक्त भी कहा है- 'अव्यक्तः', 'अव्यक्तादीनि भूतानि'। शरीर प्रतिक्षण नष्ट होने वाला और असत् है। उसकी सत्ता विद्यमान नहीं है 'नासतो विद्यते भावः'। जिसकी सत्ता विद्यमान नहीं है, ऐसे असत् शरीर को लेकर साधक शरीरी (शरीर वाला) कैसे हो सकता है?
इसलिए साधक शरीर भी नहीं है और शरीरी भी नहीं है। परन्तु इस प्रकरण में भगवान ने साधकों को समझाने की दृष्टि से उस सत्ता मात्र स्वरूप को 'शरीरी' (देही) नाम से कहा है। 'शरीरी' कहने का तात्पर्य यही बताना है कि तुम शरीर नहीं हो।
जिस समय हम शरीर और शरीरी का विचार करते हैं, उस समय भी शरीर और शरीरी वैसे ही हैं और जिस समय विचार नहीं करते, उस समय भी वे वैसे ही हैं। विचार करने से वस्तुस्थिति में तो कोई फर्क नहीं पड़ता, पर साधक का मोह मिट जाता है, उसका मनुष्य जन्म सफल हो जाता है।
मनुष्य शरीर विवेक प्रधान है। अतः 'मैं शरीर नहीं हूँ'- यह विवेक मनुष्य शरीर में ही हो सकता है। शरीर को मैं मेरा मानना मनुष्य बुद्धि नहीं है, प्रत्युत पशु बुद्धि है। इसलिये श्री शुकदेव जी महाराज राजा परीक्षित से कहते हैं- त्वं तु राजन् मरिष्येति पशुबुद्धिमिमां, जहि न जातः प्रागभूतोऽद्य देहवत्त्वं न नङ्क्ष्यसि ॥
'हे राजन्! अब तुम यह पशु बुद्धि छोड़ दो कि मैं मर जाऊँगा। जैसे शरीर पहले नहीं था, पीछे पैदा हुआ और फिर मर जाएगा, ऐसे तुम पहले नहीं थे, पीछे पैदा हुए और फिर मर जाओगे यह बात नहीं है।'
 
 
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