Published By:धर्म पुराण डेस्क

आयुर्वेद में बताए गए हैं मिर्गी के इतने प्रकार

मिर्गी यूं तो एक ही रोग है लेकिन आयुर्वेद में इसके अनेक प्रकार बताए गए हैं।

आयुर्वेदानुसार मिर्गी के प्रकार -

वातज - बार-बार दौरे आना तथा तत्काल पूर्व स्थिति में आ जाना, घबराहट होना, सिर तथा मुंह का टेड़ा हो जाना, दांत बंद हो जाना, शरीर तथा अंगुलियों का विकृत हो जाना, शरीर का नीला पड़ना, श्वास की गति तीव्र होना या कम होना। दौरे के पूर्व व पश्चात सिर में दर्द होना।

पित्तज - कंठ से आवाज आना, हाथ-पैर पटकना, नाखून, मुंह, जिव्हा, त्वचा का पीला होना, प्यास लगना, पसीना आना, आंखें लाल हो जाना, क्रोध करना तथा शरीर का गर्म हो जाना, दौरे के पूर्व व पश्चात जी मिचलाना तथा कभी-कभी रोगी को वमन (उल्टी) भी हो जाती है। इन लक्षण के साथ- दौरे का आना।

कफज - बेहोश हो जाना, देर तक होश में आना, शरीर का ठंडा पड़ जाना, मुंह से लार नहीं निकलना, शरीर के अंगों का सफेद हो जाना इन लक्षण के साथ दौरे का आना। भूख कम लगना, आलस्य आना। भोजन का देर से पचना।

सन्निपातज उपरोक्त तीनों दोषों के मिश्रित लक्षण पाये जाते हैं जिसमें कभी-कभी मल, मूत्र की प्रवृत्ति भी हो जाती है।

आयुर्वेद के मतानुसार मिर्गी को एक मानसिक व्याधि माना गया है। इसकी जानकारी एवं चिकित्सा के लिए मन के विषय में गहन अध्ययन आवश्यक है क्योंकि बिना मनोविज्ञान के मानसिक स्वास्थ्य एवं मानसिक विकारों की चिकित्सा संभव नहीं है।

गर्भावस्था से लेकर मृत्यु पर्यन्त मन के बिना कोई भी कार्य संभव नहीं है। बच्चों में गर्भावस्था में पांचवे महीने से मन की क्रियाशीलता प्रारम्भ हो जाती है। जिससे बच्चों में भी जन्म के समय से ही मिर्गी के दौरे देखे जा सकते हैं। किन्तु बच्चे मन के भाव को अभिव्यक्त नहीं कर पाते जबकि अवस्था बढ़ने के साथ-साथ व्यक्ति अपनी मन भावों को व्यक्त करने लगता है।


 

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