 Published By:बजरंग लाल शर्मा
 Published By:बजरंग लाल शर्मा
					 
					
                    
"यामें जीव दोय भांत के, एक खेल दूजे देखनहार।
पेहेचान न होवे काहूं को, आड़ी पड़ी माया मोह अहंकार।।"
उपरोक्त पद में महामति प्राणनाथ जी कहते हैं कि इस स्वप्न रूपी संसार में दो प्रकार के जीव हैं एक स्वप्न का पात्र है जिसे खेल का पात्र, दृश्य जीव कहा गया है तथा दूसरा दृष्टा जीव है, जो इस खेल को देखने वाला है ।
यह स्वप्न जगत जन्म और मृत्यु का खेल है तथा इस खेल को देखने के लिए दूसरे देश से दृष्टा जीव आते हैं। ये देश हैं -- अक्षर धाम तथा परमधाम। अक्षरधाम से जो जीव आते हैं उनको आत्मा अथवा हंस कहते हैं, जो जीव परमधाम से आते हैं उनको ब्रह्म आत्मा अथवा परमहंस कहते हैं।
इस स्वप्न जगत में दृश्य जीव के पास तो स्वप्न का शरीर होता है जो बनता और मिटता है तथा दृष्टा जीव का शरीर तो उनके धाम में ही रहता है। वे अपने सूक्ष्म शरीर के द्वारा इस स्वप्न के खेल को उत्तम मानव जीवों पर बैठकर देखते हैं। इनका सूक्ष्म शरीर दिखाई नहीं देता है।
इन दोनों प्रकार के जीवो को पहचानना बहुत मुश्किल है क्योंकि दृष्टा जीव का शरीर दिखाई नहीं देता है। इनको तो इनके व्यवहार तथा आचरण के द्वारा ही जाना जा सकता है। दृश्य जीव के सामने माया मोह अहंकार का पर्दा होने के कारण वह दृष्टा जीव को नहीं जान सकता है। ये दृष्टा जीव इस क्षर जगत के उत्तम मानव जीवों से जुड़कर ही इस खेल जगत को देखते हैं।
पूरे विश्व में मानव जीवों की संख्या अरबों है तथा उत्तम मानव भी लाखों में है और सभी अपने आपको परमधाम की ब्रह्म आत्माएं कहते हैं। पूरे विश्व में अनेक प्रकार के पंथ हैं और उन पंथों के हजारों सद्गुरु हैं और उनके लाखों, करोड़ों शिष्य हैं। इसलिए यह संभव नहीं हो सकता कि इनमें सभी परमधाम की ब्रह्मात्माएं हों।
इन दृष्टा जीवों को भी इस स्वप्न जगत में शास्त्रानुकूल कर्मों को धारण करना पड़ता है। यदि कोई दृष्टा जीव माता-पिता अथवा सास-ससुर की सेवा किए बिना, पति अथवा पत्नी व पुत्र के प्रति, समाज तथा देश के प्रति कर्तव्य का निर्वहन किए बिना, ईर्ष्या द्वेष तथा अपने अहंकार को मारे बिना अपने सतगुरु की सेवा करता है तथा आश्रमों में जाकर अपनी प्रतिष्ठा प्राप्त करता है, वह मात्र ढोंग है। वह परमधाम का दृष्टा जीव कदापि नहीं हो सकता है।
जिस प्रकार कोई व्यक्ति किसी दूसरे देश में जाकर वहां के नियमों का पालन नहीं करता है तब वह दंडित किया जाता है। उसी प्रकार कोई दृष्टा जीव अपने देश परमधाम को छोड़कर इस स्वप्न जगत के खेल को देखने आता है तब उसे यहां के नियमों का भी पालन करना होता है। अनेक ऋषि, मुनि एवं सन्त जिन्होंने इस स्वप्न जगत में आकर मर्यादा का उल्लंघन किया है उनको दंड भोगना पड़ा है।
कर्म तो दृश्य जीव ही करता है क्योंकि उसके पास शरीर होता है। परंतु दृष्टा जीव उससे जुड़ा होता है इसलिए वह भी दोष का भागी बन जाता है। जो कोई उत्तम मानव जैसे कर्म नहीं करता है, वह दृश्य जीव ही है- दृष्टा जीव कदापि नहीं अर्थात वह ब्रह्म आत्मा नहीं है।
यदि कोई दृश्य जीव तोते की तरह महामति प्राणनाथ जी की परा वाणी को रट ले तो क्या वह दृष्टा जीव (ब्रह्म आत्मा) बन जाएगा। सबसे पहले दृश्य जीव को अपने मन को निर्मल करना होगा तभी उसके ऊपर ब्रह्म आत्माओं का अवतरण हो सकता है।
बजरंग लाल शर्मा
 
 
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