आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में चरक (आचार्य) हैं। उनका आयुर्वेद में बहुत ही योगदान है या यह हुए कहिये कि इनके द्वारा कही गई बातें आज भी ब्रह्म वाक्य हैं एवं विज्ञान की कसौटी पर खरी उतर रही हैं। इन्होंने 'चरक संहिता" नामक ग्रंथ लिखा है, जो कि आयुर्वेद विद्यार्थियों के लिए पाठ्यक्रम में निर्धारित है। चरक के द्वारा बताई गई कुछ बातों का उल्लेख इस प्रकार से है-
नस्य- व्यक्ति को प्रतिवर्ष जब आकाश मेच्छादित न हो तब शरद तथा बसन्त ऋतुओं में। अणु तेल का प्रयोग करना चाहिए, अर्थात इस तेल का नस्य लेना चाहिए, जो व्यक्ति शास्त्रोक्त विधि के अनुसार यथा समय नस्य ग्रहण करता है, उसकी आंख, नासिका तथा कानों की शक्ति नष्ट नहीं होती।
सिर तथा दाढ़ी-मूंछ के बाल सफेद नहीं होते और न ही वे गिरते हैं, अपितु अच्छी प्रकार बढ़ते हैं, लंबे होते हैं। नस्य कर्म से शिरोवेदना, अर्दित (फेसियल परालिसिस) पेनिस, आधासीसी (माइग्रेन) तथा सिर कम्प शांत हो जाता है। अणु तेल चिकित्सक के मार्गदर्शन में उचित प्रकार से ही नाम में डालें।
वेगों को न रोके- बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह मूत्र, पुरीष (पखाना), वीर्य, मलवात, कै, छींक, डकार, जम्भाई, भूख, प्यास, आंसू, निद्रा इत्यादि वेगों तथा थकावट से उत्पन्न हुए श्वास के वेगों को न रोकें। अर्थात जब ये वेग उत्पन्न हो जाएं, उस समय इनका रोकना हानिकारक होता है। वाग्भट्ट ने कास (खांसी) के वेग को रोकने के लिए भी निषेध किया है।
मूत्र के वेग को रोकने से मूत्राशय, मूत्रेन्द्रिय में शूल, कष्ट मूत्र आना, सिर दर्द आदि लक्षण दृष्टिगोचर होते हैं। उपचार के रूप में अभ्यंग (तेल की मालिश) तथा घृत का प्रयोग तथा विविध वस्ति कर्म अर्थात आस्थापन, अनुवासन और उत्तर वस्ति करानी चाहिए।
सिर में तेल मालिश- प्रतिदिन सिर में तेल मालिश करने से सिर दर्द नहीं होता। न खालित्य (गंजापन) और न पालित्य (बालों का सफेद होना) होता है, बाल नहीं गिरते। सिर के कपालों में बालों की विशेष वृद्धि होती है। बाल काले तथा लंबे होते हैं। उनकी जड़ें मजबूत होती हैं।
सिर पर मालिश से इन्द्रियां प्रसन्न होती हैं। त्वचा कोमल और निर्मल होती है, सुखपूर्वक नींद आती है। तेल की मालिश बालों की जड़ों में करनी चाहिए। ऊपर तेल चुपड़ने से कोई विशेष फायदा नहीं होता।
धनवंतरी में डॉक्टर ओपी वर्मा आयुर्वेदाचार्य बताते हैं।
ब्रह्मचर्य- ब्रह्मचर्य से अभिप्रायः अंतिम धातु वीर्य की रक्षा से है। यह रक्षा मन, वचन एवं कर्म से होनी चाहिए, इसके बिना ब्रह्मचर्य की पालना नहीं हो सकती। मन में बुरे विचारों के आने पर वे वचन और कर्म द्वारा प्रकट हो ही जाते हैं। यदि कर्म में वह वीर्य का व्यय स्वयं न भी करें, तो रात्रि में स्वप्नदोष आदि होकर व्यय हो जाया करता है और व्यक्ति मानस ग्लानि एवं शारीरिक विकारों से पीड़ित होता है।
ब्रह्मचर्य आश्रय (विद्याध्ययन काल) में तो वीर्य का एक बिंदु भी क्षय नहीं होना चाहिए। गृहस्थाश्रम में केवल संतानोत्पत्ति के निमित्त ही व्यय होना चाहिए। इससे आगे के दो आश्रयों में पूर्ण, ब्रह्मचारी रहना चाहिए। यह वीर्य जीवन का आधार है। सम्पूर्ण धातुओं का सार है।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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