स्वास्थ्य-रक्षा में योगासनों का योगदान:
रक्षा में योगासनों का अभ्यास एक महत्वपूर्ण घटक है। यूँ तो योग का सम्बन्ध मन के स्थैर्य एवं चित्तवृत्तियों के निरोध के माध्यम से स्व-स्वरूप में प्रतिष्ठित होने से है, तथापि इस लक्ष्य की प्राप्ति में आसन-सिद्धि आवश्यक सोपान है। बिना आसन-सिद्धि के मन का स्थैर्य होना भी अत्यंत कठिन है।
स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन की अवस्थिति होती है और शारीरिक स्वास्थ्य तथा मानसिक स्वास्थ्य की प्राप्ति के लिये आसनों का अभ्यास भी अपेक्षित है।
आसनों से जहाँ न केवल शरीर सौष्ठव, स्फूर्ति आदि प्राप्त होती है, वहीं श्वास-प्रश्वास की प्रक्रिया नियंत्रित होती है, मन की स्थिरता प्राप्त होती है, सम्यक् ध्यान लगता है, शरीर में रक्त- संचार उचित रीति से होता है, शरीर की मांसपेशियों में प्रसार एवं संकुचन की प्रक्रिया तीव्र होती है, शरीर में विद्यमान त्रिदोषों (कफ, वात, पित्त) का संतुलन बना रहता है और रोगों के निवारण में सहायता मिलती है।
स्वयं आचार्य चरक का कहना है कि योगासनों के अभ्यास तथा सम्यक् व्यायाम से शरीर में हल्कापन, कार्य करने की शक्ति, शरीर में स्थिरता, दुःख सहन करने की क्षमता, शरीर में बढ़े हुए तथा कुपित दोषों की क्षीणता और शरीर की मन्द अग्नि उद्दीप्त होती है। यथा-
इसी प्रकार 'हठयोग प्रदीपिका ने आसनों के लाभ बताते हुए कहा कि योगासनों से शरीर एवं मन की स्थिरता, आरोग्य और शरीर की लघुता प्राप्त होती है—
“'स्थैर्य मारोग्यं चांग लाघवम् । "
इस प्रकार योगासनों और स्वास्थ्य का घनिष्ठ सम्बन्ध है। अनेक रोगों के निदान में ये सहायक हैं। इसी दृष्टि से यहाँ कुछ प्रमुख आसन चित्रों के साथ दिये जा रहे हैं, उनकी सम्यक् प्रक्रिया का अवज्ञान कर लाभ उठाना चाहिये।
पृथ्वी पर समसूत्र में पीठ के बल सीधा लेट जाएं। दृष्टि को नासाग्र में जमाकर दायें पैर के अंगूठे को पकड़कर नासिका के अग्रभाग को स्पर्श करे, इसी प्रकार पुनः पुनः करे, मस्तक, बायाँ पैर और नितम्ब पृथ्वी पर जमे रहे ।
इसी प्रकार दायें पैर को फैलाकर बायें पैर के अँगूठे को नासिका के अग्रभाग से स्पर्श करें। फिर दोनों पैरों के अँगूठों को दोनों हाथों से पकड़कर नासिका के अग्रभाग को स्पर्श करे। कई दिन के अभ्यास के पश्चात् अँगूठा नासिका के अग्रभाग को स्पर्श करने लगेगा।
कमर का दर्द, घुटने की पीड़ा, कन्द स्थान की शुद्धि एवं उदर-सम्बन्धी सर्वरोगों का नाश करता है। यह आसन स्त्रियों के लिए भी लाभदायक है।
दोनों पांवों को लम्बा सीधा फैलावे। दोनों हाथों की उंगलियों से दोनों पैरों की अंगुलियों को खींचकर, शरीर को झुकाकर माथे को घुटने पर टिका दे, यथाशक्ति वहीं पर टिकाये रहे। प्रारम्भ में दस बीस बार शनैः शनैः रेचक करते हुए मस्तक को घुटने पर ले जाए और इसी प्रकार पूरक करते हुए ऊपर उठाता चला जाए ।
पाचन शक्ति को बढ़ाना, कोष्ठबद्धता दूर करना, सब स्नायु और कमर तथा पेट की नस-नाड़ियों को शुद्ध एवं निर्मल करना, बढ़ते हुए पेट को पतला करना इत्यादि । इससे मन्दाग्नि, कृमि-विकार तथा वात-विकार आदि रोग दूर होते हैं। इस आसन को कम-से-कम दस मिनट तक करते रहने के पश्चात् उचित लाभ प्रतीत होगा।
पैरों को लम्बा करके यथाशक्ति चौड़ा फैलावे । तत्पश्चात् दोनों पैरों के अँगूठे को पकड़कर सिर को भूमि में टिका दे।
इससे ऊरु और जङ्घा प्रदेश तन जाते हैं। टाँग, कमर, पीठ और पेट निर्दोष होकर वीर्य स्थिर होता है।
एक पाँव को सीधा फैलाकर दूसरे पाँव की एड़ी गुदा और अंडकोष के बीच में लगाकर उसके पाद- तल से फैले हुए पाँव की रान को दबावे। पैर की उंगलियों को दोनों हाथों से खींचकर धीरे धीरे आगे को झुकाकर माथे को पसारे हुए घुटने पर लगा दे। इसी प्रकार दूसरे पाँव को फैलाकर माथे को घुटने पर लगावे ।
इस आसन के सब लाभ पश्चिमोत्तानासन के समान है। वीर्य-रक्षा तथा कुण्डलिनी जाग्रत करने में सहायक होना यह इसमें विशेषता है। इसको भी वास्तविक लाभ-प्राप्ति के लिये कम-से-कम दस मिनट करना चाहिये।
चित लेटकर दोनों हाथों को सिर की ओर तथा दोनों पैरों को आगे की ओर फैलावे। फिर पूरक करके जालन्धर-बन्ध के साथ दोनों हाथों और दोनों पैरों को छ:-सात इंच की ऊँचाईत क धीरे-धीरे उठावे और वहीं पर यथाशक्ति ठहरावे। जब श्वास निकालना चाहे, तब पैरों और हाथों को जमीन पर रखकर धीरे-धीरे रेचक करे।
छाती, हृदय एवं फेफड़े का मजबूत और शक्तिशाली होना और पेट के सब प्रकार के रोगों का दूर होना।
चित लेटकर शरीर के सम्पूर्ण स्नायु ढीले कर दे, पूरक करके धीरे-धीरे दोनों पैरों को (उंगलियों को ऊपर की ओर खूब ताने हुए) ऊपर उठावे, जितनी देर आराम से रख सके रखकर पुनः धीरे-धीरे भूमि पर ले जाए और श्वास को धीरे-धीरे रेचक कर दे। प्रथम बार तीस डिग्री तक, दूसरी बार पैंतालीस डिग्री तक, तीसरी बार साठ डिग्री तक पैरों को उठावे।
इस आसन के नौ भेद किये गये हैं ….
हाथों के पंजे नितम्ब के नीचे रख, चित लेट, एक पैर घुटने में मोड़कर घुटने को पेट के पास लाकर तथा दूसरा पैर किंचित् ऊपर उठाकर बिल्कुल सीधा रखें और इस प्रकार पैर चलावे जैसे साइकिल पर बैठकर चलाते हैं।
इससे नितम्ब, कमर, पेट और टाँगें निर्दोष होकर वीर्य शुद्ध, पुष्ट और स्थिर रहता है।
चित लेटकर दोनों पैर 45 डिग्री तक ऊपर उठाकर जमीन से बिना लगाये धीरे-धीरे ऊपर-नीचे करें।
इससे पेट के स्नायु मजबूत होते हैं और मल त्याग क्रिया ठीक होती है।
चित लेटकर, दोनों पैर (एक पैर 20 डिग्री में और दूसरा पैर 45 डिग्री में) अधर में रखकर जमीन से बिना लगाये हुए ऊपर-नीचे करें।
इससे कमर के स्नायु मजबूत होते हैं, मलोत्सर्ग क्रिया ठीक होती है, वीर्य शुद्ध और स्थिर होता है।
हाथ-पैर एक रेखा में सीधे फैलाकर चित लेटे। दोनों हाथ उठाकर पैरों की ओर ले जाए। इस प्रकार पुनः पुनः पीठ के बल लेटकर पुनः पुनः उठे।
इससे कमर, छाती, रीढ़ और पेट निर्दोष होते हैं।
पूर्ववत् पीठ के बल लेटकर, सिर के पीछे हाथ बांधे, बिना पैर उठाए कमर से शरीर ऊपर उठावे।
इससे पेट, छाती, गर्दन, पीठ और रीढ़ के दोष दूर होते हैं
उपर्युक्त आसन करके घुटना मोड़कर बारी-बारी धीरे-धीरे माथे में लगावे, नीचे का पैर भूमि पर टिका हुआ सीधा रहे।
इससे यकृत (जिगर), प्लीहा (तिल्ली), फेफड़े आदि नीरोग होकर पेट, गर्दन, कमर, रीढ़, ऊरु बलवान् और निर्विकार होते हैं।
पूर्ववत् पीठ के बल लेटकर हाथ-पैर दोनों एक साथ ऊपर उठावे और पुनः पूर्ववत् एक रेखा में ले जाये, चार-पाँच बार ऐसा करें।
इससे पेट, छाती, कमर और ऊरु निर्दोष होते हैं।
पैर सामने को फैलाकर हाथों की कोहनियों के बल धड़ को उठावे, अनन्तर पैर 45 डिग्री तक ऊपर उठाकर ऊपर नीचे करें ।
इससे कमर, रीढ़ और पेट निर्दोष होते हैं।
ऊपर कहे अनुसार ही करे, किंतु इसके अतिरिक्त सिर दोनों घुटनों में लगा दे।
इससे पीठ, छाती, रीढ़, गर्दन और कमर के सब विकार दूर होते हैं।
चित लेटकर दोनों नासिका से पूरक करके बायें हाथ को कमर के निकट लगाये रखे, दूसरे दायें हाथ से दायें पैर के अँगूठे को पकड़े और समूचे शरीर को जमीन पर सटाये रखे, दायां हाथ और पैर ऊपर की ओर उठाकर तना हुआ रखे।
इसी प्रकार दायें हाथ को दायीं ओर कमर से लगाकर बायें हाथ से बायें पैर के अँगूठे को पकड़कर पूर्ववत् करना चाहिये। फिर दोनों हाथों से दोनों पैरों के अंगूठे पकड़कर उपयुक्त विधि से करना चाहिये।
सब प्रकार के पेट के रोगों का दूर होना, हाथ-पैरों का रक्त संचार और बल वृद्धि।
चित लेटकर पहले एक पाँव को सीधा फैलाकर दूसरे पाँव को घुटने से मोड़कर पेट पर लगाकर दोनों हाथों से अच्छी प्रकार दबाये। फिर इस पाँव को सीधा करके दूसरे पाँव से भी पेट को खूब इसी प्रकार दबावे। तत्पश्चात् दोनों पाँवों को इसी प्रकार दोनों हाथों से पेट पर दबावे। पूरक करके कुम्भक के साथ करने में अधिक लाभ होता है।
उत्तानपादासन के समान ही इसके सब लाभ हैं। वायु को बाहर निकालने में तथा शौच शुद्धि में विशेष रूप से सहायक होता है, बिस्तर पर लेटकर भी किया जा सकता है, देर तक कई मिनट तक करते रहने से वास्तविक लाभ की प्रतीति होगी।
भूमि पर चित लेट कर दोनों पैरों को तान कर, धीरे-धीरे कंधे और सिर के सहारे से पूर्ण शरीर को ऊपर खड़ा कर दे। आरम्भ में हाथों के सहारे से उठावे, कमर और पैर सीधे रहें, दोनों पैरों के अंगूठे दोनों आँखों के सामने रहें।
मस्तक कमजोर होने के कारण जो शीर्षासन नहीं कर सकते हैं, उनको इस आसन से लगभग वही लाभ प्राप्त हो सकते हैं। एक पाँव को आगे और दूसरे को पीछे इत्यादि करने से इसके कई प्रकार हो जाते हैं। इसमें ऊर्ध्व-पद्मासन भी लगा सकते हैं।
रक्तशुद्धि, भूख की वृद्धि और पेट के सब विकार दूर होते हैं। सब लाभ शीर्षासन के समान जानने चाहिये।
चित लेटकर दोनों पांव को उठाकर, सिर के पीछे जमीन पर इस प्रकार लगावे कि पाँव के अँगूठे और उँगलियाँ ही जमीन को स्पर्श करें, घुटनों सहित पांव सीधे समसूत्र में रहें, हाथ पीछे भूमि पर रहे।
दूसरा प्रकार - दोनों हाथों को सिर की ओर ले जाकर पैर के अँगूठे को पकड़कर ताने।
कोष्ठबद्धता दूर होना, जठराग्नि का बढ़ना, आँतों का बलवान होना, अजीर्ण, प्लीहा, यकृत तथा अन्य सब प्रकार के रोगों की निवृत्ति और क्षुधा की वृद्धि।
चित लेटकर हाथों और पैरों के पंजे भूमि पर लगाकर कमर का भाग ऊपर उठावे। हाथ पैरों के पंजे जितने पास-पास आ सके, उतने लाने का यत्न करे। यह आसन खड़ा होकर पीछे से हाथों को जमीन पर बने से भी होता है।
कमर और पेट के स्थान को इससे अधिक लाभ पहुंचाता है, जिसका पृष्ठवंश सदा आगे की ओर झुकता है, उसका दोष इस आसन द्वारा विशुद्ध झुकाव होने से दूर हो जाता है।
जमीन पर एक मुलायम गोल लपेटा हुआ वस्त्र रखकर अपने मस्तक को उस पर रखे। फिर दोनों हाथों के तलों को मस्तक के पीछे लगाकर शरीर को उलटा ऊपर उठाकर सीधा खड़ा कर दे, इसे 'शीर्षासन' कहते हैं। प्रारम्भ में किसी दीवार आदि के सहारे करते हुए अभ्यास बढ़ाना चाहिए। इसमें सिर नीचे और पैर ऊपर होता है, अतः इसे 'विपरीतकरणी मुद्रा' भी कहते हैं।
कोई-कोई शीर्षासन को 'कपाली' नाम से भी पुकारते हैं। पैर से सिर तक सारा शरीर एक लंबी सीधी रेखा में होना चाहिए। इस आसन में पैरों की ओर से रक्त का प्रवाह मस्तिष्क की ओर होने लगता है। इसलिये इस आसन को करने के बाद शवासन करना चाहिए, जिससे रक्त की गति सीमित हो जाए।
पद्मासन के साथ भी इसे किया जा सकता है। जिसका मस्तिष्क निर्बल और उष्ण रहता है, नेत्र सदा लाल रहते हैं, जिन्हें उरःक्षत, क्षय, हृदय की गति वृद्धि, श्वास रोग का तीक्ष्ण प्रवाह, वमन, हिक्का, उन्माद आदि रोग हों, उनके लिए यह आसन हानिकारक है, अतः उन्हें नहीं करना चाहिये। भोजन के बाद या रात्रि में इसका अभ्यास करना हानिकारक होता है।
इस आसन का अभ्यास करने से वात, पित्त और कफ दोष से उत्पन्न सब रोग, ज्वर, कास, श्वास, उदररोग, कटिवात, अर्धाङ्ग, ऊरुस्तम्भ, वृषण वृद्धि, नाडीव्रण, भगंदर, कुष्ठ, पाण्डु, कामला, प्रमेह तथा अंत्रवृद्धि आदि रोग दूर हो जाते हैं। शारीरिक दुर्बलता दूर हो जाती है और शरीर निरोग और ऊर्जस्वी हो उठता है|
शरीर के सब अंगों को ढीला करके मुर्दे के समान लेट जाय। शव के समान निश्चेष्ट लेटे रहने से इसे 'शवासन' कहते हैं। सब आसनों के पश्चात् थकान दूर करने और चित्त को विश्राम देने के लिये इस आसन को करे।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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