जिस आनन्द, सुख शांति प्राप्त होने के बाद और कुछ प्राप्त करना बाकी नहीं रहता। अगर अनुकूल वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदि के होने में अथवा उनकी संभावना में हम सुखी होंगे अर्थात् हमारे भीतर अनुकूल वस्तु, व्यक्ति आदि को प्राप्त करने की कामना, लोलुपता रहेगी तो हम अनुकूलता का सदुपयोग नहीं कर सकेंगे।
अनुकूलता का सदुपयोग करने की सामर्थ्य, शक्ति हमें प्राप्त नहीं हो सकेगी। कारण कि अनुकूलता का सदुपयोग करने की शक्ति अनुकूलता के भोग में खर्च हो जाएगी, जिससे अनुकूलता का सदुपयोग नहीं होगा; किन्तु भोग ही होगा।
इसी रीति से प्रतिकूल वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना, क्रिया आदि के आने पर अथवा उनकी आशंका से हम दुखी होंगे तो प्रतिकूलता का सदुपयोग नहीं होगा; किन्तु भोग ही होगा। दुःख को सहने की सामर्थ्य हमारे में नहीं रहेगी। अतः हम प्रतिकूलता के भोग में ही फंसे रहेंगे और दुखी होते रहेंगे।
अगर अनुकूल वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना आदि के प्राप्त होने पर सुख-सामग्री का अपने सुख, आराम, सुविधा के लिये उपयोग करेंगे और उससे राजी होंगे तो यह अनुकूलता का भोग हुआ।
परन्तु निर्वाह-बुद्धि से उपयोग करते हुए उस सुख-सामग्री को अभावग्रस्तों की सेवा में लगा दें तो यह अनुकूलता का सदुपयोग हुआ। अतः सुख सामग्री को दुःखियों की ही समझें। इसमें दुखियों का ही हक है।
मान लो कि हम लखपति हैं तो हमें लखपति होने का सुख होता है, अभिमान होता है। परन्तु यह सब तब होता है, जब हमारे सामने कोई लखपति न हो। अगर हमारे सामने, हमारे देखने-सुनने में जो आते हैं, वे सब के-सब करोड़पति हो, तो क्या हमें लखपति होने का सुख मिलेगा? बिलकुल नहीं मिलेगा।
अतः हमें लखपति होने का सुख तो अभावग्रस्तों ने, दरिद्रों ने ही दिया है। अगर हम मिली हुई सुख-सामग्री से अभावग्रस्तों की सेवा न करके स्वयं सुख भोगते हैं, तो हम कृतघ्न होते हैं। इसी से सब अनर्थ पैदा होते हैं। कारण कि हमारे पास जो सुख-सामग्री है, वह दुखी आदमियों की ही दी हुई है। अतः उस सुख सामग्री को दुखियों की सेवा में लगा देना हमारा कर्तव्य होता है।
अब विचार यह करना है कि प्रतिकूलता का सदुपयोग कैसे किया जाए..
दुःख का कारण सुख की इच्छा, आशा ही है। प्रतिकूल परिस्थिति दुःखदायी तभी होती है, जब भीतर सुख की इच्छा रहती है। अगर हम सावधानी के साथ अनुकूलता की इच्छा का, सुख की आशा का त्याग कर दें, तो फिर हमें प्रतिकूल परिस्थिति में दुःख नहीं हो सकता अर्थात हमें प्रतिकूल परिस्थिति दुखी नहीं कर सकती।
जैसे, रोगी को कड़वी-से-कड़वी दवाई लेनी पड़े, तो भी उसे दुःख नहीं होता, प्रत्युत इस बात को लेकर प्रसन्नता होती है कि इस दवाई से मेरा रोग नष्ट हो रहा है। ऐसे ही पैर में काँटा गहरा गड़ जाए और काँटा निकालने वाला उसे निकालने के लिये सुई से गहरा घाव बनाये तो बड़ी पीड़ा होती है।
उस पीड़ा से वह सिसकता है, घबराता है, पर वह कांटा निकालने वाले को यह कभी नहीं कहता कि भाई, तुम छोड़ दो, काँटा मत निकालो। काँटा निकल जाएगा, सदा के लिये पीड़ा दूर हो जाएगी इस बात को लेकर वह इस पीड़ा को प्रसन्नतापूर्वक सह लेता है।
यह जो सुख की इच्छा का त्याग करके दुःख को, पीड़ा को प्रसन्नतापूर्वक सहना है यह प्रतिकूलता का सदुपयोग है। अगर वह कड़वी दवाई लेने से, कांटा निकालने की पीड़ा से दुखी हो जाता है, तो यह प्रतिकूलता का भोग है, जिससे उसको भयंकर दुःख पाना पड़ेगा।
यदि हम सुख-दुःख का उपभोग करते रहेंगे, तो भविष्य में हमें भोग-योनियों में अर्थात स्वर्ग, नरक आदि में जाना ही पड़ेगा। कारण कि सुख-दुःख भोगने के स्थान ये स्वर्ग, नरक आदि ही हैं। यदि हम सुख-दुःख का भोग करते हैं,
सुख-दुःख में सम नहीं रहते, सुख-दुःख से ऊँचे नहीं उठते, तो हम मुक्ति के पात्र कैसे होंगे? नहीं हो सकते। चौदहवें श्लोक में भगवान ने कहा कि ये सांसारिक पदार्थ आदि अनुकूलता प्रतिकूलता के द्वारा सुख-दुःख देने वाले और आने-जाने वाले हैं, सदा रहने वाले नहीं हैं, क्योंकि ये अनित्य हैं, क्षणभंगुर हैं।
इनके प्राप्त होने पर उसी क्षण इनका नष्ट होना शुरू हो जाता है। इनका संयोग होते ही इनसे वियोग होना शुरू हो जाता है। ये पहले नहीं थे, पीछे नहीं रहेंगे और वर्तमान में भी प्रतिक्षण अभाव में जा रहे हैं। इनको भोगकर हम केवल अपना स्वभाव बिगाड़ रहे हैं, सुख दुःख की भोगी बनते जा रहे हैं।
सुख-दुःख के भोगी बनकर हम भोगयोनि के ही पात्र बनते जा रहे हैं, फिर हमें मुक्ति कैसे मिलेगी? हमें मुक्ति-(भोग-) की ही रुचि है, तो फिर भगवान हमें मुक्ति कैसे देंगे, इस प्रकार यदि हम सुख दुख का उपभोग ना करके उनका सदुपयोग करेंगे तो हम सुख दुख से ऊंचा उठ जाएंगे और महान आनंद का अनुभव कर लेंगे।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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