वह आत्मा ही अजन्मा है, यह आत्मा ब्रह्म है जो पाप से रहित एवं सर्वान्तर है
'अयमात्मा ब्रह्म' अर्थात यह आत्मा ब्रह्म है। जिसके द्वारा सबको जानता है, उसे किसके द्वारा जाने विज्ञाता को किसके द्वारा जाना जा सकता है-
"येनेदं सर्वं विजानाति तं केन विजानीयाद्विज्ञातारमरे विजानीयादिति॥"
इस प्रकार आर्यों के गौरवपूर्ण जीवन-कर्म का उदात्त वर्णन वैदिक साहित्य में भरा पड़ा है। आर्य ऋषियों ने दिव्य आध्यात्मिक उपलब्धियों का महत्व स्वीकार किया, साथ ही उन्होंने जीवन की भौतिक लब्धियों की भी उपेक्षा नहीं की।
ऋषियों बार- बार यह कहा है कि अनित्यार्जन मत करो, धनवान या अर्थवान बनने की अपेक्षा 'आत्मवान' बनने का प्रयास करना चाहिए। निश्चय ही वह जाति जिसने आध्यात्मिक मूल्यों का तिरस्कार करके भौतिक मूल्यों को महत्व दिया वह अपने को अधिक दिनों तक स्थिर नहीं रख पाई।
कहा गया है कि धन के सभी दास होते हैं जबकि धन किसी का दास नहीं होता। ऋषि सावधान करते हैं कि- जो अंश अजन्मा है उसे तेजस्वी करो तथा वह आत्मा कभी भी नष्ट नहीं होता।
वह आत्मा ही अजन्मा है, यह आत्मा ब्रह्म है जो पाप से रहित एवं सर्वान्तर है-
"अयमात्मा ब्रह्म। य आत्मापहतपाप्मा। य आत्मा सर्वान्तर:।"
आत्म तत्त्व का साक्षात्कार करके ऋषियों ने स्पष्ट कह दिया है कि आत्मा का यथार्थ स्वरूप शुद्धत्व, निष्पापत्व एकत्व, नित्यत्व, अशरीरत्व और सर्वगतत्व आदि है। अनृत से सत्य की ओर प्रगति करना तभी सम्भव है जब हम यह विश्वास पूर्वक मान लें कि यह आत्मा जो हमारे शरीर में है वही विश्वात्मा है। वह एक ही है जिसे अनेक नामों से स्मरण किया जाता है।
'एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति' कह कर ऋषि ने जिस परम तत्त्व का साक्षात्कार किया है वह उनकी सभी उपलब्धियों में श्रेष्ठतम माना जाएगा। वैदिक ऋषियों ने ऐसा आश्वासन दिया है, जिससे मानव को अमृतत्व सुलभ करा दिया है। यह उपलब्धि जीवन को सम्पन्न ओर प्रकाश पूर्ण बनाने में पूर्ण योग देती है।
ऋषियों ने अपने ज्ञान-बल से जिस रहस्य का पता लगाया उसे सर्वजन सुलभ के दिया। वस्तुत: उनका यह अन्वेषण अपने लिए ही नहीं था, अपितु यह जन कल्याणार्थ ही था। ऋषियों का उद्घोष- "आत्मा वा अरे द्रष्टव्य: मंतव्यो निदिध्यासितव्यो" अर्थात आत्मा ही दर्शनीय, श्रवणीय, मनंनीय एवं ध्यान करने योग्य है।
आत्मा पहले आचार्य तथा शास्त्रों के द्वारा श्रवण करने योग्य है एवं बाद में तर्क के द्वारा मनन करने योग्य है। श्रवण, मनन और निदिध्यासन रूप साधनों के संपन्न होने पर ही आत्मा का साक्षात्कार होता है, इसे ही दर्शनीय कहा जा सकता है।
"तस्य भासा सर्वमिदं विभाति" श्रुति के अनुसार आत्मा के प्रकाशित होते ही सब प्रकाशित हो जाता है। सब कुछ उसी के प्रकाश से प्रकाशमान है। इसी सूक्ष्म आत्मा में पांचो प्राण समाहित हैं। उसमें ही प्रजा वर्ग के सम्पूर्ण चित्त व्याप्त हैं जिसके शुद्ध हो जाने पर यह आत्म रूप से प्रकाशित होने लगता है।
जो कोई उस परब्रह्म को जान लेता है, वह ब्रह्म ही हो जाता है- 'स यो ह वै तत् परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति'। विद्वानों की कुशलता, शब्दों की धारावाहिकता, शास्त्र व्याख्यान की निपुणता और विद्वत्ता भोग ही कारण हो सकती है, मोक्ष का नहीं।
शब्दजाल चित्त को भटकाने वाला एक महान भ्रम है। अत: प्रयत्न करके आत्मतत्त्व को जानना चाहिए। ऋषियों की जो उपलब्धियां थीं वे ही आज हमारी पूर्ण निधि है। पूर्णत्व को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए, क्योंकि पूर्ण आदि मध्य और अंत है-
"पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
विद्यालंकार
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