 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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ब्रह्मचर्य से तात्पर्य ब्रह्म का आचरण है। इसे ब्रह्म के समान जीवन को सुन्दर जीने का अभ्यास कहा जा सकता है। बहुत से लोग काम के विरोध एवं निरोध को ही ब्रह्मचर्य मानते हैं। यह अर्थ बहुत ही संकुचित है। वंश-परम्परा चलाने से अधिक काम-चिंतन आत्मघात है।
आत्मघाती न बन केवल वंश-परम्परा चलाने के लिए ही काम-सेवन करना चाहिए। गृहस्थ-जीवन में रहना चाहते हो तो तो वैदिक विधि से विवाह कर एक पत्नी के साथ जीवन का निर्वाह करना चाहिए। एक पत्नी-व्रत का पालन करते हुए गृहस्थ धर्म का पालन करना चाहिए। धार्मिक-भाव से गृहस्थ-जीवन का निर्वाह ही ब्रह्मचर्य है।
ब्रह्मचर्य से भीतरी शक्ति का रूपांतरण हो जाता है। जो वासना नीचे गिराने वाली थी, वह ऊपर उठाने वाली हो जाती है। वह साधक को परमात्मा तक पहुंचा देती है। यदि वह मूलाधार में कामवासना की तरंग थी, तो वही सातवीं भूमिका पर समाधि हो जाती है। क्योंकि आपने अभ्यास किया और शक्ति का रूपांतरण हो गया।
अत: परमात्मा का ध्यान करने के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करना बहुत आवश्यक है। व्यापक आत्मा के समान मन का विकास हो जाए, यही ब्रह्मचर्य है। इसके लिए शरीर, इन्द्रियां, मन और बुद्धि की चेष्टाओं को संयमित करना होगा। वासनाएँ मनुष्य को संसार में फंसाती हैं और ब्रह्मचर्य परमात्मा का दर्शन कराता है। आत्मा ही परमात्मा है।
जब उसे अपने स्वरूप का ज्ञान हो जाता है, तो इन्द्रियां का दास न होकर, परम स्वतंत्र हो जाता है। परमात्मा के समान ही उसका व्यापक दृष्टिकोण हो जाता है। सारांश: मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाले काम-विकार के सर्वथा अभाव का नाम ही ब्रह्मचर्य है।
 
                                मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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