 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च। जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्॥
'इन्द्रिय-विषयों में विरक्ति, अहंकार का अभाव, जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदि में दुःख और दोषों को देखना। '
आज तक कई जन्मों के कुटुंब और परिवार तुमने सजाये - धजाये। मृत्यु के एक झटके से वे सब छूट गये। अतः अभी से कुटुम्ब का मोह मन-ही-मन हटा दो। यदि शरीर की इज्जत - आबरू की इच्छा है, शरीर के मान मरतबे की इच्छा है वह आध्यात्मिक राह में बड़ी रुकावट हो जायेगी। फेंक दो शरीर की ममता को। निर्दोष बालक जैसे हो जाओ। इस शरीर को बहुत संभाला।
कई बार इसको नहलाया, कई बार खिलाया-पिलाया, कई बार घुमाया, लेकिन... लेकिन यह शरीर सदा फरियाद करता ही रहा। कभी बीमारी, कभी अनिद्रा, कभी जोड़ों में दर्द, कभी सिर में दर्द, कभी पचना, कभी न पचना... शरीर की गुलामी बहुत कर ली। मन-ही-मन अब शरीर की यात्रा कर लो पूरी। शरीर को कब तक 'मैं' मानते रहोगे बाबा !
जीवन में हमारे शरीर, जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा और रोग जैसे कई दुःखों और दोषों का सामना करना पड़ता है। भगवद्गीता के इस श्लोक में इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति की अभाव, अहंकार का अभाव और इस शरीर के दुःख और दोषों को देखने का उपदेश दिया गया है। इसका अर्थ है कि हमें अपने शरीर और इंद्रियों के प्रति आसक्ति छोड़नी चाहिए और इन दुःखों और दोषों को समझना चाहिए।
कई जन्मों के कुटुंब और परिवार बनाए गए हैं, लेकिन मृत्यु के एक झटके से वे सभी छूट जाते हैं। इससे हमें यह बोध होना चाहिए कि शरीर और संबंधित मामलों के मोह से मुक्त होना आवश्यक है। हमें अपने आध्यात्मिक मार्ग में बड़ी रुकावटों का सामना करना पड़ सकता है अगर हम शरीर की इज्जत और मरतबे की इच्छा में आसक्त हो जाएं। इसलिए, हमें शरीर के लिए ममता को छोड़ देना चाहिए और निर्दोष बालक की तरह बन जाना चाहिए।
यह सत्य है कि हमने अपने शरीर की बहुत देखभाल की है, उसे नहलाया है, खिलाया-पिलाया है, घुमाया है, लेकिन फिर भी यह शरीर हमेशा हमें फरियाद करता रहा है। यह दुख और रोग का अनुभव करता रहा है। हमने अपने शरीर की गुलामी बहुत कर ली है।
अब हमें मन-ही-मन शरीर की यात्रा पूरी करनी चाहिए। हमें शरीर को अपने आप में नहीं मानना चाहिए, बल्कि यह साधन के रूप में देखना चाहिए जो हमें आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले जाता है। शरीर की ममता को फेंक दें और आत्मनिर्भर बनें।
 
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