बुढ़ापे की मार से मंद विष का शरीर कमजोर पड़ गया था। उसके विषदंत हिलने लगे थे और फुफकारते हुए दम फूल जाता था। जो चूहे के साए से भी दूर भागते थे, वे अब उसके शरीर को फांदकर उसे चिढ़ाते हुए निकल जाते। पेट भरने के लिए चूहों के भी लाले पड़ गए थे। मंद विष इसी उधेड़बुन में लगा रहता कि किस प्रकार आराम से भोजन का स्थाई प्रबंध किया जाए। एक दिन उसे एक उपाय सूझा और उसे आजमाने के लिए वह दादर सरोवर के किनारे जा पहुंचा। दादर सरोवर में मेंढकों की भरमार थी। वहां उन्हीं का राज था। मंद विष वहां इधर-उधर घूमने लगा। तभी उसे एक पत्थर पर मेढकों का राजा बैठा नजर आया। मंद विष ने उसे नमस्कार किया “महाराज की जय हो।”
मेंढक राज चौंका “तुम! तुम तो हमारे बैरी हो। मेरी जय का नारा क्यों लगा रहे हो?”
मंद विष विनम्र स्वर में बोला “राजन, वे पुरानी बातें हैं। अब तो मैं आप मेंढकों की सेवा करके पापों को धोना चाहता हूं। श्राप से मुक्ति चाहता हूं। ऐसा ही मेरे नागपुरी का आदेश है।”
मेंढक राज ने पूछा “उन्होंने ऐसा विचित्र आदेश क्यों दिया?”
मंद विष ने मनगढ़ंत कहानी सुनाई “राजा, एक दिन मैं एक उद्यान में घूम रहा था। वहां कुछ मानव बच्चे खेल रहे थे। गलती से एक बच्चे का पैर मुझ पर पड़ गया और बचाव स्वभाववश मैंने उसे काटा और वह बच्चा मर गया। मुझे सपने में भगवान श्रीकृष्ण नजर आए और श्राप दिया कि मैं वर्ष समाप्त होते ही पत्थर का हो जाऊंगा। मेरे गुरुदेव ने कहा कि बालक की मृत्यु का कारण बन मैंने कृष्ण जी को रुष्ट कर दिया है,क्योंकि बालक कृष्ण का ही रूप होते हैं। बहुत गिड़गिड़ाने पर गुरुजी ने श्राप मुक्ति का उपाय बताया। उपाय यह है कि मैं वर्ष के अंत तक मेढकों को पीठ पर बैठकर सैर कराओ।”
मंद विष की बात सुनकर मेंढक राज चकित रह गया। सर्प की पीठ पर सवारी करने का आज तक किस मेढक का श्रेय प्राप्त हुआ? उसने सोचा कि यह तो एक अनोखा काम होगा। मेंढक राज सरोवर में कूद गया और सारे मेंढकों को इकट्ठा कर मंद विष की बात सुनाई। सभी मेंढक भौंचक्के रह गए।
एक बूढा मेंढक वाला “मेंढक एक सांप की सवारे करें। यह एक अद्भुत बात होगी। हम लोग संसार में सबसे श्रेष्ठ मेंढक माने जाएंगे।”
एक सर्प की पीठ पर बैठकर सैर करने के लालच ने सभी मेंढकों की अक्ल पर पर्दा डाल दिया था। सभी ने ‘हां’ में ‘हां’ मिलाई। मेंढक राज ने बाहर आकर मंद विष से कहा “सर्प, हम तुम्हारी सहायता करने के लिए तैयार हैं।”
बस फिर क्या था। आठ-दस मेंढक मंद विष की पीठ पर सवार हो गए और निकली सवारी। सबसे आगे राजा बैठा था। मंद विष ने इधर-उधर सैर कराकर उन्हें सरोवर तट पर उतार दिया। मेंढक मंद विष के कहने पर उसके सिर पर से होते हुए आगे उतरे। मंद विष सबसे पीछे वाले मेंढक को गप्प खा गया। अब तो रोज यही क्रम चलने लगा। रोज मंद विष की पीठ पर मेंढक की सवारी निकली और सबसे पीछे उतरने वाले को वह खा जाता।
एक दिन एक दूसरे सर्प ने मंद विष को मेंढकों को ढोते देख लिया। बाद में उसने मंद विष को बहुत धिक्कारा “अरे!क्यों सर्प जाति की नाक कटवा रहा हैं?”
मंद विष ने उत्तर दिया “समय पड़ने पर नीति से काम लेना पड़ता है। अच्छे-बुरे का मेरे सामने सवाल नहीं हैं। कहते हैं कि मुसीबत के समय गधे को भी बाप बनाना पड़े तो बताओ।”
मंद विष के दिन मजे से कटने लगे। वह पीछे वाले वाले मेंढक को इस सफाई से खा जाता कि किसी को पता न लगता। मेंढक अपनी गिनती करना तो जानते नहीं थे, जो गिनती द्वारा माजरा समझ लेते।
एक दिन मेंढक राजा बोला “मुझे ऐसा लग रहा है कि सरोवर में मेंढक पहले से कम हो गए हैं। पता नहीं क्या बात है?”
मंद विष ने कहा “हे राजन, सर्प की सवारी करने वाले महान मेंढक राजा के रूप में आपकी ख्याति दूर-दूर तक पहुंच रही हैं। यहां के बहुत से मेंढक आपका यश फैलने दूसरे सरोवरों, फलों व झीलों में जा रहे हैं।”
मेंढक राजा की गर्व से छाती फूल गई। अब उसे सरकार में मेंढकों के कम होने का भी गम नहीं था। जितने मेंढक कम होते जाते, वह यह सोचकर उतना ही प्रसन्न होता कि सारे संसार में उसका झंडा गढ़ रहा है।
आखिर वह दिन भी आया, जब सारे मेंढक समाप्त हो गए। केवल मेंढक राज अकेला रह गया। उसने स्वयं को अकेले मंद विष की पीठ पर बैठा पाया तो उसने मंद विष से पूछा “लगता है सरोवर में मैं अकेला रह गया हूं। मैं अकेला कैसे रहूंगा?”
मंद विष मुस्कुराया “राजन, आप चिंता न करें। मैं आपका अकेलापन भी दूर कर दूंगा।”
ऐसा कहते हुए मंद विष ने मेंढक राज को भी गप्प से निगल लिया और वहां भेजा जहां सरोवर के सारे मेंढक पहुंचा दिए गए थे।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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