संत ने कहा- मैं अकेला भोजन नहीं करता, सभी बैठो। वे बैठ तो गए पर पूरी घटना बतानी पड़ी।
संत ने दीनबन्धु से कहा- तुम कैसे पिता हो? पुत्र मरा पड़ा है, तुम भोजन को बैठ गए?
दीनबन्धु- संसार में कौन पिता है? कौन पुत्र है? सराय में सब यात्री ठहरते हैं, सुबह चल पड़ते हैं, मैं क्याें शोक करूं?
संसार तो आम का पेड़ है। कुछ फूल ही गिर जाते हैं, तो कुछ छोटे फल ही टूट कर गिर जाते हैं। जो पक जाते हैं वे भी गिर ही जाते हैं। मैं किसके लिए रोऊँ?
मालती- कुम्हार बर्तन बनाता है। कुछ बनने में नष्ट हो जाते हैं, कुछ बन कर तो कुछ थोड़े समय बाद टूट जाते हैं। पर अंत में टूटते ही हैं। पक्षी पेड़ पर इकट्ठा होते हैं और सुबह होते ही उड़ जाते हैं।
छोटा पुत्र- जगत के सब संबंध झूठ है। न जन्म से पहले कोई नाता है, न मृत्यु के बाद। सिवा परमात्मा के अपना है ही कौन?
बाजार में अनेक व्यापारी आते हैं। कोई किसी का कुछ नहीं होता। फिर भी हंस, बतला, अपना व्यापार करते हैं। बाजार बंद होने पर सब चले जाते हैं। अपना व्यापार कर, वह चला गया। एक दिन मैं भी चला जाऊँगा। जिसका माल अभी बिका नहीं, वह किसी के साथ कैसे चला जाए? उसे तो अभी प्रतीक्षा करनी है।
पुत्रवधु- महाराज! संसार में जीव का पति कौन है? क्या भगवान के सिवा और भी कोई हमारा स्वामी है? भगवान के लिए ही स्त्री लौकिक पति की भगवद् वृत्ति से सेवा करती है।
जब तक भगवान ने उनकी सेवा करवानी थी, जब तक उनका मेरा साथ था, तब तक तन-मन से सेवा मेरा धर्म था। अब उन्हें वापिस बुला लिया है, तो मुझे शोक कैसा?
संत तो भजन के लिए सन्यासी होते हैं। वैधव्य तो संन्यास है, जो भगवान ने कृपा करके मुझे दिया है।
संसार तो हरि की लीला है। वे हंसाते भी हैं, रूलाते भी हैं। मिला देते हैं, तो बिछुड़ा भी देते हैं। मैं उनकी किसी लीला को देखकर शोक क्यों करूँ?
संसार एक नाटक है। सभी सूत्रधार के इशारों पर चलते हैं। मुझे तो अपने अभिनय से भगवान को रिझाना है। अब तक मुझे सधवापन का पात्र मिला था, अब विधवापन का मिला गया। मैं शोक क्यों करूं?
इतने में भगवान की लीला से मरा बेटा जीवित हो गया। संत ने सब घटना बताई तो वह बेटा बोला- धूप से, कुछ राहगीर, एक वृक्ष के नीचे खड़े होते हैं। धूप कम हो जाने पर अपनी राह चल देते हैं। पेड़ वहीं खड़ा रह जाता है।
कल फिर कुछ राही आएंगे और फिर चले जाएंगे, तब शोक कैसा?
हजारों मनुष्य अपना लेन-देन चुकाने के लिए एकत्र होते हैं, और ऋण उतरते ही अलग हो जाते हैं। तो शौक कैसा?
लोकेशानन्द कहता है कि इनमें से एक सूत्र भी कोई पकड़ ले तो दुख का कोई कारण न रहे।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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