Published By:धर्म पुराण डेस्क

धार्मिक और आध्यात्मिक होने के लक्षण 

अतः आत्मबोध और ब्रह्म बोध की साधना ही अध्यात्म है। इसका कोई बाहरी रूप निश्चित नहीं है। किसी भी कार्य या व्यवसाय को करता हुआ अथवा लौकिक स्तर पर कुछ भी न करता देखता हुआ ऐसा कोई भी व्यक्ति आध्यात्मिक हो सकता है, जिसके जीवन में आत्मबोध और ब्रह्म बोध की साधना चल रही हो। मतवाला और विश्वास पद्धतियों में आस्था रखने वाला व्यक्ति निशांत भौतिक होता है, वह आध्यात्मिक नहीं होता। इसलिए कोई भी मजहब या ख्रीस्त पंथी व्यक्ति कभी भी आध्यात्मिक नहीं होता। इसके स्थान पर भगवद् स्मरण पूर्वक भक्ति भाव से शांत और ध्यान केंद्रित रहते हुए अपना कार्य कर रहा एक सामान्य भारतीय ग्रामीण हिन्दू सच्चा आध्यात्मिक हो सकता है। ‘स्पिरिचुअलिटी’ अध्यात्म नहीं है। वह अपने परिचित पदार्थ जगत में मगन रहने से ऊबकर किसी भूत-प्रेत-पिशाच या आसमानी सत्ता अथवा धारा में आस्था रखता है। इस प्रकार ‘स्पिरिचुअलिटी’ वस्तु या तो एक मानसिक जगत होती है यानी एक मनोलोक मात्र होता है या फिर कोई मानसिक व्याधि होती है। उसका अध्यात्म से कोई संबंध नहीं। अध्यात्म ज्ञान से रहित व्यक्ति ही ‘स्पिरिचुअल’ होते हैं। 

धार्मिक होने का लक्षण है कम से कम सामान्य मानव धर्म का अनिवार्य पालन। जो कि मनुष्य मात्र के लिये अनिवार्य है। मानव धर्म का पालन नहीं होने से जगत में अव्यवस्था, अशांति, अराजकता और अनाचार फैलता है। मानव धर्म है - शाम (चित्त की शांति), दम (इन्द्रिय संयम), तप (श्रेष्ठ लक्ष्य के लिए कष्ट सहन और द्वंद्व सहन), आंतरिक और बाहरी पवित्रता, आन्तरिक शांति की गहन साधना, चित्त और वचन की ऋजुता (अर्थात वक्रता का अभाव), प्रचंड बुद्धि साधना अर्थात बौद्धिक उत्कर्ष, सत्यनिष्ठा, विद्या साधना और सामान्य व्यवहार में क्रोधी हीन रहकर स्वधर्म का पालन। ये आधारभूत मानवधर्म हैं। इन लक्षणों के बिना कोई व्यक्ति धार्मिक नहीं होता। इसलिए मजहबी या रेलिजस होने का अर्थ है अधर्ममय होना, धार्मिक होना, मानव धर्म से रहित होना। 

इस आधारभूत लक्षण के अतिरिक्त धार्मिक व्यक्ति के अन्य लक्षण हैं, जीव और जगत तथा परमात्मा के स्वरूप के विषय में उत्कंठा और जिज्ञासा तथा किसी एक समर्थ ज्ञानी (गुरु) के मार्गदर्शन (मन्त्र) में अनुशासित जीवन जीना तथा निरंतर ध्यान साधना करते हुए स्वधर्म को पहचानने का प्रयास और फिर स्वधर्म का पालन। स्वधर्म का निश्चय सामाजिक परिवेश, संरचना और स्तर विन्यास के ज्ञान से होता है तथा साथ ही अपनी प्रकृति और सामर्थ्य तथा विशेषताओं को स्वयं मनन पूर्वक अथवा गुरु के द्वारा जानकर स्वधर्म निश्चित किया जा सकता है। स्वधर्म का पालन धार्मिक होने का अनिवार्य लक्षण है। स्पष्ट है कि स्वधर्म का पालन तभी संभव है, जब व्यापक धर्म का, सार्वभौम धर्म का, सार्वभौम सनातन नियमों का, सनातन धर्म का ज्ञान सार रूप में या सूत्र रूप में प्राप्त कर लिया जाये। धर्म के ज्ञान से ही स्वधर्म का ज्ञान होता है और तदनुरूप स्वधर्म का पालन होता है। स्वधर्म पर चल रहा व्यक्ति ही धार्मिक होता है। 

प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

 

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