 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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कुपथ्य वश मनुष्य के शरीर में अनेक प्रकार के कृमि (कीड़े) पड़ जाते हैं, जिसके कारण अनेक प्रकार के कष्ट होते हैं, उन्हीं को कृमि रोग कहा जाता है। आयुर्वेद में इनके 9 भेद कहे गये हैं तथापि मुख्य भेद दो ही होते हैं -
(1) बाहरी कृमि तथा (2) भीतरी कृमि अजीर्ण में भोजन, सड़ा-गला बासी भोजन, कुपथ्य भोजन, दिन में सोना, दूध और मछली, दूध तथा दही, दूध और केला आदि नित्य मीठा तथा खट्टा भोजन एवं गरिष्ठ पदार्थों का सेवन आदि इस रोग के प्रमुख कारण हैं।
लक्षण– शरीर के भीतर कृमि उत्पन्न हो जाने पर ज्वर, पेट में शूल, हृदय में दुख, जी मिचलाना, वमनेच्छा, चक्कर आना, दस्त, भोजन में अरुचि एवं त्वचा का रंग बदल जाना आदि लक्षण प्रकट होते हैं। बाहरी कृमि शरीर में खाज, खुजली, दाद, कोढ़, गांठ, गलगण्ड आदि उत्पन्न करते हैं।
यहाँ भीतरी कृमियों की चिकित्सा का उल्लेख किया जा रहा है। छोटे बच्चों के पेट में भीतरी कीड़े अधिक होते हैं। ये कीड़े आकार में अत्यंत छोटे, सफेद रंग के तथा 36 इंच तक लम्बे केंचुए के आकार वाले भी होते हैं। पाश्चात्य-चिकित्सा के मत से ये कीड़े सात किस्मों के होते हैं, जिनमें तीन प्रकार के कीड़े अधिक पाये जाते हैं|
(1) चुरने पिब वर्म या थ्रेड वर्म-ये सूत जैसे पतले तथा आधा अंगुल लंबे होते हैं। ये बड़ी आँत में रहते हैं तथा रेंगकर गुदा पर आ जाते हैं, जिसके कारण गुदा स्थान पर खुजली होती है। इनकी अधिकता हो जाने पर अनिद्रा, मिर्गी, कम्प, आदि लक्षण प्रकट होते हैं।
छोटे बच्चे नींद से चौक पड़ते, रोते-चिल्लाते, वमन तथा पतले दस्त करते एवं पेशाब करके बिस्तर भिगो देते हैं। ये कीड़े जब बड़ी आयु वाले स्त्री-पुरुषों को भी हो जाते हैं तो पुरुष प्रमेह, स्वप्नदोष तथा स्त्रियों में योनि से श्वेत पदार्थ का स्राव आदि लक्षण प्रकट होते हैं।
(2) कद्दू दाने अथवा 'टेपवर्म' नामक कीड़े विभिन्न आकारों के एक से दो इंच लम्बे तथा बड़े कीड़े पाँच से आठ इंच लंबे होते हैं। ये कीड़े अधिकतर मांसाहारियों के शरीर में होते हैं। इनके कारण जठराग्नि मंद पड़ जाती है, भूख कम लगती है, त्वचा रूखी हो जाती है, पेट में दर्द तथा ऐंठन एवं पतले दस्त आदि लक्षण प्रकट होते हैं।
(3) केंचुए नामक कीड़े कुछ पीले-मटमैले रंग के 5 से 14 इंच तक लंबे होते हैं। ये प्रायः छोटी आंत में रहते हैं, परंतु कभी-कभी आमाशय, जिगर, फेफड़े आदि में भी प्रवेश कर जाते हैं। इनके कारण पेट में दर्द-सा होता रहता है, पेट बढ़ जाता है, भूख तथा नींद कम लगती है, चेहरा पीला पड़ जाता है, दस्त में आंव आती है, प्यास अधिक लगती है तथा मुँह से खून आना, खांसी, यकृतशोथ, पीलिया, मूर्च्छा आदि लक्षण भी प्रकट होते हैं।
कृमिरोग में निम्नलिखित आयुर्वेदिक योग देने से लाभ होता है|
(1) जैतून के कच्चे तेल को गुदा में तीन दिन लगाने से बच्चों के कृमि मर जाते हैं।
(2) एक माशा कमिलाको आधी छटाँक पानी में औटाये, आठवां भाग जल शेष रह जाय तो उतारकर छान लें तथा बालक को पिला दें, इससे थ्रेड वर्म गिर जाते हैं।
(3) बच्चों को 6 ग्राम नारियल का तेल पिलाने से उदर- कृमि निकल जाते हैं।
(4) छोटी दुद्धी का चूर्ण खाने से बच्चों के उदर कृमियों का नाश हो जाता है।
(5) नीम के पत्तों का रस शहद मिलाकर चाटने से पेट के कृमि नष्ट हो जाते हैं।
(6) बथुए का अर्क निकालकर पीने से भी पेट के कीड़े मर जाते हैं।
(7) मट्ठे में 3 माशा अजवाइन का चूर्ण मिलाकर पीने से पेट के कीड़े मरकर बाहर निकल जाते हैं।
(8) नारियल का खोपरा खाने से उदर के चिपटे कृमियों का नाश होता है।
(9) एक सप्ताह तक कच्ची गाजर खाते रहने से कृमि मर जाते हैं।
(10) पपीते के 5-7 बीज ताजे पानी के साथ खाने से 5 दिन में पेट के कीड़े मर जाते हैं।
(11) सूरजमुखी के साढ़े तीन माशा बीजों को पीसकर खाने से पेट के कीड़े मर जाते हैं और दर्द भी ठीक हो जाता है।
(डॉ० राजेश्वर प्रसाद जी गुप्ता)
 
 
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