सतयुग के अंत में यज्ञ होने लगे थे। विकार काम कर रहे थे। रजोगुण प्रधान होने लगा। मनुष्य के मन में पहली वासना सम्मान एवं स्वर्ग की जाग्रत हुई। यज्ञ और दान त्रेता के साधन बने। मनोबल कुछ क्षीण हुआ।
अब मनुष्य को संकल्प सिद्धि के लिये यज्ञ की आवश्यकता हुई। यज्ञ में उस समय देवता प्रत्यक्ष हो जाते थे। स्वयं यज्ञेश भगवान विष्णु प्रकट होते और यजमान की कामना पूर्ण करते थे। यज्ञ के लिये ही मनुष्य संग्रह करते थे। यज्ञ एवं दान ही संग्रह का लक्ष्य था। संग्रह भोग के लिये नहीं किया जाता था। फलतः संचय कार्यतः एव भवतः पवित्र था।
मन निर्मल था और उसमें श्रद्धा थी। यज्ञ कराने वाले ऋषिगण सत्य युग के समाज के समान ही त्यागी, वासनाहीन, निर्लोभी एवं तपस्वी थे। फलतः यज्ञ सर्वांग-सफल होते थे। उनके अभिमान ने आध्यात्मिक स्तर में अव्यवस्था उत्पन्न की, फलतः अकाल पड़ा। जनसंख्या बढ़ गयी थी और यज्ञ के लिये संग्रह की प्रवृत्ति हो गयी थी।
मनुष्यों में वह प्रकृति के द्वन्द्व सहने एवं तप की शक्ति नहीं थी। परिणाम जंगलों पर निर्भर नहीं रहा जा सकता था। महाराज पृथु ने, जो आदि नरेश थे, नगर-ग्राम आदि बसाये। पृथ्वी समतल कराया और कृषि होने लगी। महाराज पुरुरवा ने यज्ञीय अग्नि के तीन भाग किये। यज्ञ पुरुरवा के समय से सकाम होने लगे। उससे पूर्व वे भगवत् प्रीत्यर्थ ही होते थे।
समाज बनाने पर नियम भी लागू हुए। वेदत्रयी कार्यशील हुई। वर्णाश्रम-धर्म प्रत्यक्ष व्यवहार में आया। इस समय तक भी मनुष्य में शारीरिक भोगेच्छा नहीं आयी थी, फलतः शारीरिक आचार का कठोर नियंत्रण आवश्यक नहीं था। क्योंकि नियंत्रण का उद्देश्य शरीर नहीं, मन है।
भारतीय संस्कृति में मन की शुद्धि ही सदा। सम्मुख रखी गयी है। त्रेता में मनुष्य स्वभावतः धर्मात्मा थे और वेदों में उनकी अविचल श्रद्धा थी। उस समय अरुण वर्ण, चतुर्भुज, तीन सूत्रों की मूँज की मेखला धारण किये, स्वर्ण वर्ण की जटा-जूट वाले, वेदात्मा, स्नुकू स्रुवादि हाथों में लिये भगवान ‘यज्ञ' की उपासना यज्ञ के द्वारा होती थी।
मनुष्य को उस समय भगवान के विष्णु, यज्ञ, पृश्निगर्भ, सर्वेश्वर, उरुक्रम, वृषाकपि, जयंत उरुगाय (उत्तम श्लोक) - ये नाम प्रिय थे।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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