समर्थ स्वामी ने भगवद गीता में दिए गए उपदेशों के माध्यम से मनुष्य के त्रिगुणात्मक स्वभाव का विवेचन किया है। उन्होंने तीनों गुणों - सत्व, रजस, और तमस - के लक्षणों को वर्णित करके मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं की समझ बढ़ाई है।
सत्वस्था (सत्वगुण): सत्वगुण में स्थित व्यक्ति ज्ञान, प्रेम, और शांति के साथ युक्त होता है। उसकी बुद्धि सुधी होती है और वह अपने कर्मों में सत्य, अहिंसा, और सेवा की भावना बनाए रखता है। ऐसा व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार की ओर बढ़ता है और भगवद्भाव में रमता है।
राजसी स्था (रजोगुण): रजोगुण में स्थित व्यक्ति कार्यशील, उत्साही, और चापल होता है। उसमें आत्म-उत्साह और सक्रियता होती है, लेकिन वह अकेले सत्य की ओर ध्यान नहीं करता है। उसे आत्म-साक्षात्कार की कमी होती है और वह अधिकतर सांसारिक फलों की प्राप्ति के लिए काम करता है।
तामसी स्था (तमोगुण): तमोगुण में स्थित व्यक्ति अज्ञान, अज्ञानता, और असंवेदनशीलता के अधीन रहता है। उसकी बुद्धि मोह और अविवेक में अस्तित्व में होती है और वह अधिकतर असात्कार्यों में लिप्त रहता है। तामसी स्था व्यक्ति को संसारिक बंधनों में फंसा देती है।
गुणात्मक व्यक्तित्व और उसके प्रभाव:
रजोगुणी व्यक्ति का चित्त परिचांड और अशांत होता है, जिससे वह बाह्यिक भोगों में रमा रहता है, जबकि तमोगुणी व्यक्ति अकेले अपने कामों में ही संतुष्ट रहता है, लेकिन उसका कार्य कोई भी उद्दीपन नहीं देता है। उत्तम सत्वगुणी व्यक्ति आत्म-नियंत्रण में रहता है, वह सत्य और अहिंसा में बना रहता है, और उसका कार्य सामाजिक एवं आध्यात्मिक उन्नति की दिशा में होता है।
धर्म और कर्म:
समर्थ स्वामी ने धर्म, कर्म, दान, और पुण्य की महत्वपूर्णता पर भी चर्चा की है। सत्वगुण में स्थित व्यक्ति धर्म की पालना, कर्मयोग, और सेवा में लगा रहता है, जबकि रजोगुणी व्यक्ति अधिकतर फल की प्राप्ति के लिए काम करता है और तामसी व्यक्ति धर्म से दूर रहता है और अनादर्ता के साथ अनेक अधर्मों में लिप्त रहता है।
समाप्ति:
समर्थ स्वामी के उपदेशों से हमें त्रिगुणात्मक स्वभाव की समझ मिलती है और हमें यह भी सिखने को मिलता है कि कैसे हम अपने जीवन को सत्य, प्रेम, और सेवा की दिशा में मोड़ सकते हैं। उनके उपदेश हमें सही कर्मों का चयन करने और आत्मा के साक्षात्कार की दिशा में बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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