Published By:धर्म पुराण डेस्क

सत्य एक रूप से परमात्मा ही, सत्य वही है, जिसमें किसी प्रकार का परिवर्तन न किया जा सके  

अहिंसा के बाद सत्य को रखा गया है। आज सत्य का सबसे अधिक दुरुपयोग हो रहा है। आज सत्य को जीवन में उतारने की है। वाणी से जो कहा जाता है, वही मन का भी अभीष्ट हो और इन्द्रियों व मन से जैसा कुछ देखा, सुना, अनुभव किया गया हो दूसरों को ठीक वैसा समझाने के लिए बिना छल कपट के जो वाणी का उच्चारण किया जाता है, वही सत्य है। 

सत्य वह है, जिसमें किसी प्रकार का परिवर्तन न किया जा सके। सत्य एक रूप से परमात्मा ही है, अत: जीवन में सदा सत्य का ही आचरण करना चाहिए। वाणी सत्य के द्वारा ही पवित्र करनी बोलनी चाहिए। जल वस्त्र के द्वारा छान कर पीना चाहिए। दृष्टि द्वारा स्थान पवित्र करके पैर रखना चाहिए और मन से पवित्र करके व्यवहार करना चाहिए।

महाभारत में सत्य पालन पर बल देते हुए, उसकी महिमा को प्रस्तुत करते हुवे कहा गया है- "नास्ति सत्यात् परो धर्मो नानृतात् पातकं महत" अर्थात सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं है, झूठ से बढ़कर कोई पाप नहीं है।

वाणी सत्य बोलनी चाहिए, सब प्राणियों के उपकार के लिए होनी चाहिए न कि जीवों की हानि के लिए इसका प्रयोग होना चाहिए। यदि आप के सत्य से किसी की हानि होती है, तो वह सत्य नहीं हुआ, वह तो पाप हो गया। सत्य के विषय में कहा गया है - "सत्यस्य वचनं श्रेय: सत्यापि हितं वदेत" अर्थात सत्य-वचन उत्तम है, पर वह सत्य-वचन सदैव हितकर ही होना चाहिए।

महाभारत में सत्य के 13 प्रकार बताये गये हैं -- 

1- सत्य पूर्ण वाणी बोलना, 

2- सभी प्राणियों पर समभाव, 

3- इन्द्रियों का दमन, 

4- किसी की उन्नति ईर्ष्या नहीं, 

5- क्षमा-भाव,

6- लज्जाशीलता, 

7- सहनशीलता, 

8- दूसरों के दोष नहीं देखना, 

9- त्याग-भाव, 

10- प्रभु-स्मरण, 

11- उत्तम आचरण, 

12- धैर्य-धारण,

13- अहिंसा-पालन। 

यह तेरह प्रकार का सत्य है। अर्थात इस प्रकार के गुणधर्म जिस व्यक्ति में हो, वह सत्य-परायण माना जाता है। इन सब परिस्थितियों में बुद्धि को सम रखने से ही सत्य एवं परम सत्य की प्राप्ति होती है।

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