हिन्दी साहित्य के महान आलोचक आचर्य रामचंद्र शुक्ल ने भगवान् श्रीराम को शील, शक्ति और सौन्दर्य का मूर्तरूप बताया है. सचमुच, श्रीराम के चरित्र को पढ़कर उनके ये गुण बहुत स्पष्टता से उभर कर आते हैं. उनकी शक्ति से तो सभी लोग परिचित हैं, लेकिन उनके शील और सौन्दर्य के विषय में कम चिन्तन किया जाता है. उनकी वाणी और स्वभाव ऐसा है, कि उनसे शत्रुता रखने वाले लोग तक उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहते. वह जिससे भी बोलते-मिलते हैं, वह उनका बने बिना नहीं रह पाता. वह शबरी को माता कहकर उसका मन जीत लेते हैं, गीधराज को पिताके समान आदर देकर उसका ह्रदय जीत लेते हैं, हनुमान को गले लगाकर अपना अनन्य भक्त बना लेते हैं, विभीषण से परिवार की कुशल पूछकर अपने साथ ले लेते हैं. समाज में आमतौर पर लोगों को यह कहते सुना जाता है, कि सच बहुत कड़वा होता है. उनकी बात में कुछ सत्य भी है. कोई व्यक्ति सच सुनना नहीं चाहता. हर कोई वह सुनना चाहता है, जो उसे सच लगता है या जो वो सुनना चाहता है जो उसे सुनना पसंद हो. लेखक और कवि इस बात को बहुत कहते है, कि “भाई, हम तो कड़वा सच बोलते हैं”.
लेकिन सच को भी प्रिय तरीके से कहा जा सकता है. भारत में प्राचीनकाल में कहा गया है,कि “सत्यं वद प्रियं वद”. यानी सच को प्रिय रूप में कहा जा सकता है. इसका एक बहुत अच्छा उदाहरण भगवान् श्रीराम के व्यवहार में देखा जा सकता है. अपने पिता के वचन की रक्षा के लिए श्रीराम वन जाने का निर्णय लेते हैं. वह अपनी माता कोशल्या से अनुमति लेने जाते हैं. माता जब वन की कठिनाइयों की बात करती हैं, तो भगवान् कहते हैं, कि “पिता दीन्ह मोहिं कानन राजू”. वह यह नहीं कहते, कि मुझे वनवास जाना है. वह कहते हैं, कि पिता ने मुझे वन का राज्य दिया है. इसके विपरीत उनके छोटे भाई लक्ष्मण ने वनवास के संदर्भ में पिता के बारे में बहुत अनुचित बातें कही थीं. संत तुलसीदास मर्यादावादी थे, इसलिए उन्होंने इसका सिर्फ संकेत भर दिया है, लेकिन वाल्मीकि रामायण में इस बात को बहुत विस्तार से लिखा गया है. लेकिन श्रीराम ने कभी भाषा में भी मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया. भरत भी इस प्रसंग को लेकर अपनी माता के साथ बातचीत में भाषा की मर्यादा का बहुत उल्लंघन किया. उन्होंने तो इस घटना के बाद कैकेई को कभी माता कहकर संबोधित नहीं किया.
लेकिन चित्रकूट में जब श्रीराम की माता कैकेयी से भेंट होती है, तो वे उनसे इस प्रकार बात करते हैं, कि माता शर्मिन्दा नहीं हों. वह कहते हैं, कि माता इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है, यह तो विधि का विधान था, जिसने बलात आपसे यह करवा लिया. आप अपने आप को दोषी मानकर किसी तरह की ग्लानि नहीं करें. अधिकतर लोग कुछ गलत बात करने के बाद कहते हैं, कि हमारे शब्दों पर मत जाइए, हमारी भावना को समझिये. रामचरितमानस में लोकपक्ष और आत्मपक्ष दोनों को समान महत्त्व दिया है. यानी आपको जो कुछ भी कहना है, बहुत सौम्य तरीके से और शिष्ट भाषा में कहा जा सकता है. कड़वे से कड़वा सत्य भी बहुत सभ्य भाषा में कहा जा सकता है. इससे लोक और आत्म दोनों पक्षों का निर्वाह हो जता है.
श्रीराम गुरु की आज्ञा के पालन के लिए जाने जाते हैं. उनके अनुसार गुरु की इच्छा ही आज्ञा है. लेकिन उन्होंने किसी अवसर पर उन्हें गुरु की आज्ञा को नहीं भी माना. चित्रकूट में गुरु वशिष्ट उनसे जिस प्रकार अयोध्या वापस लौटने का सुझाव देते हैं, जिसमें आदेश का ही भाव निहित होता है, लेकिन श्रीराम बहुत विनम्रता और शिष्टता के साथ इस आज्ञा को मानने से इंकार कर देते हैं. वह अपनी बात इस तरह से रखते हैं, कि गुरु भी उन्हें स्पष्ट रूप से आज्ञा नहीं दे पाते. श्रीराम का स्वभाव बहुत संकोची है. ऐसा स्वाभाव सिर्फ सर्वशक्तिमान का ही हो सकता है. चित्रकूट में जब ऋषि भरद्वाज कहते हैं, कि हे राम! आज मेरा तप, तीर्थ और त्याग सुफल हुआ. आज आपके दर्शन से ही मेरे सब कल्याण-साधनों का सुफल मिल गया. यह सुनकर श्रीराम को बहुत संकोच होता है. वह मुनि की प्रशंसा करते हुए कहते हैं, कि आप सब प्रकार से समर्थ हैं, फिर भी संकोचवश ऐसा कह रहे हैं. इस तरह उन्होंने भारद्वाज के मन को जीत लिया. धनुष यज्ञ में जब राजा जनक उनकी प्रशंसा करते हैं, तो श्रीराम संकोच में पड़ जाते हैं. इसी तरह जब वह अत्रि के आश्रम में जाते हैं, तो उनके द्वारा प्रशंसा किये जाने पर संकोच में पड़ जाते हैं.
श्रीराम का रूप सौन्दर्य तो ऐसा है, कि उन्हें देखकर कोई प्रभावित हुए बिना रह ही नहीं सकता. बचपन में जब महर्षि विश्वामित्र उन्हें लेने आये, तो वह उनके अलौकिक रूप को देखकर चकित रह गये. जनक की सभा में राजा जनक उन्हने एकटक निहारते रह गये. जब वह जनकपुरी देखने जाते हैं, तो नर-नारी उनके रूप को देखकर विश्वास ही नहीं कर पाते, कि वे मनुष्य हैं. वे कहते हैं, कि विष्णु के तो चार हाथ हैं, ब्रह्मा के चार सिर है, शंकर का रूप अलग है, फिर ये कौन से देवता हैं, जो यहाँ पधारे हैं. जनक की सभा में जब परशुराम क्रोध में आपे से बाहर हो जाते हैं, तब श्रीराम अपने अद्भुत शील का परिचय देते हैं. लेकिन जब दृढ़ता दिखाने की बात आती है, तो उसमें भी वह बहुत शालीनता बरतते हुए, परशुराम का ह्रदय जीत लेते हैं.
वनवास के दौरान उन्हें देखने वाले लोग उनके रूप सौन्दर्य को देखकर आश्चर्य में पद जाते हैं. वे कहते हैं, कि भाई वे माता-पिता कितने कठोर होंगे, जिन्होंने ऐसे सुकुमार और सुंदर पुत्र लो वन में भेज दिया. यहाँ तक कि, जन क्षेत्र में राक्षसी शूर्पनखा उन्हें देखती है, तो इतनी बुरी तरह मोहित हो जाती है, उनके सामने प्रणय निवेदन तक कर बैठती है. इसके बाद जब खर और दूषण जैसे भयंकर राक्षस उनसे युद्ध करने आते हैं, तो वे उनके रूप को देखकर मोहित हो जाते हैं. वह अपन मंत्री से कहते हैं, कि ये कोई मनुष्यों में भूषण रूप राजकुमार हैं. नाग, असुर, सुर, नर और मुनि, जितने भी हैं, हमने कितने ही देख डाले, कितनों को जीत लिया और कितनों को मार डाला. पर हमें आज तक ऐसी सुन्दरता कहीं नहीं देखी. हालाकि इन्होने हमारी बहन को कुरूप किया है, लेकिन ये उपमारहित पुरुष वध किये जाने योग्य नहीं हैं.
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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