 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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अपरिग्रह से तात्पर्य कम से कम ग्रहण करना है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध आदि किसी भी भोग - सामग्री का संग्रह न करना ही अपरिग्रह है। आवश्यकता से अधिक जीवन की उपयोगी वस्तुओं का संग्रहण नहीं करना चाहिए। साथ ही मालिक का भाव भी नहीं आना चाहिए।
संपत्ति को बटोरने के स्थान पर बांटने का प्रयास करना चाहिए। यदि बटोरते ही चलोगे और बाँटोगे नहीं तो समाज का संतुलन बिगड़ जाएगा। साथ ही व्यक्ति सम्पूर्ण जीवन की शक्ति को विविध सामग्री को जुटाने में ही व्यय कर देता है। इन वस्तुओं का अधिक संग्रह करने पर उनके रख-रखाव की भी चिंता रहती है। मन इनके संभालने में ही लगा रहता है, वह आत्म-चिंतन और परमात्म-चिंतन से सर्वथा दूर हो जाता है।
न्यायशास्त्र के प्रणेता कणाद अपरिग्रही थे। फसल काटते समय जो अनाज की वल्लियाँ गिर जाती हैं, वे उन्हें चुन-चुन कर तथा कूट-कूट कर अनाज निकाल लिया करते थे। उसी से अपना भोजन चलाया करते थे तथा अतिथि का सत्कार भी उसी से किया करते थे। शेष समय तत्त्व-चिंतन में व्यतीत किया करते थे, पास में कुछ भी नहीं रखा रखते थे।
जिस राजा के राज्य में वे रहते थे, उस राजा को पता चला कि उनके राज्य में इतना बड़ा दार्शनिक रहता है, उसके पास खाने-पीने की वस्तुओं की कमी है, अनाज के कण-कण बीनकर भोजन चलाता है। कण-कण बीन के भोजन का जुगाड़ करने के कारण ही कणाद नाम सामान्य-जन में प्रसिद्ध हो गया था। वास्तविक नाम का तो किसी को ज्ञात ही नहीं रहा।
राजा ने सोचा उस ऋषि को सीधा - सामग्री और पर्याप्त धन दे आता हूँ। मंत्रियों को आज्ञा दी कि आज ऋषि कणाद के पास जाना है। चीनी की बोरियां, घी के टीन, चावल और अनाज की बोरियां, कई थैली अशर्फियाँ साथ लेकर चलनी है। इतना बड़ा ऋषि मेरे राज्य में रहे और उसे खाने-पीने की कठिनाई हो, यह मेरा अपना अपमान है। सामग्री के साथ राजा साथ चले और ऋषि के आश्रम में पहुंचे।
राजा ने घोड़े से उतरकर ऋषि को प्रणाम किया और हाथ जोड़ कर निवेदन किया- "बड़े ही दुःख की बात है कि आप मेरे राज्य में रहें और आपको खाने-पीने का कष्ट हो। में बहुत-सी सामग्री, बहुत-सी अशर्फियाँ आपके लिए लाया हूँ, अब आपको कोई कष्ट नहीं होगा। इन्हें आप स्वीकार कर अनुगृहीत कीजिए। आज्ञा दीजिए कि इन्हें कहाँ रखवाऊं।
"ऋषि कणाद ने कहा - "राजन ! आपने इतना कष्ट क्यों किया ? आप इतना धन तो ले आये हैं, पर इसे संभालेगा कौन ? धन के साथ चिंताएं भी तो आती हैं। मैं धन की चिंता करूंगा या आत्म-चिंतन करूंगा। आप इसे उठा कर वापिस ले जायिए। यदि इसे आप नहीं ले जाते तो इतना बता दीजिए कि आप के राज्य की सीमा कहाँ तक है। मैं आपके राज्य की सीमा से पार चला जाऊंगा।"
कहने का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति को अपरिग्रही बनना चाहिए। इससे से ही परम-तत्त्व का ज्ञान हो सकता है। इन पाँचों यमों के अनुष्ठान से ही आंतरिक शक्ति का रूपांतरण होता है। मानव में प्रेम, करुणा आदि सद्गुणों का विकास होता है। जाति, देश, काल और निमित्त से अविच्छिन्न अर्थात रहित यम का सार्वभौम पालन महाव्रत होता है।
सार्वभौम से तात्पर्य है- मनुष्य और मनुष्येतर समस्त प्राणी, हिन्दू, मुसलमान आदि भेदों से किसी के साथ भी यमों के पालन में भेद न करना 'जातिगत सार्वभौम महाव्रत' है। भिन्न-भिन्न खण्डों, देशों, प्रान्तों, ग्रामों, स्थानों एवं तीर्थ-अतीर्थ आदि के भेद से किसी के साथ भी यमों के पालन में भेद न करना ' देशगत सार्वभौम ' महाव्रत है। वर्ष, मास, पक्ष, सप्ताह, दिवस, मुहूर्त, नक्षत्र एवं पर्व-अपर्व आदि के भेदों से यम के पालन में किसी भी प्रकार भी भेद न करना ' कालगत सार्वभौम ' महाव्रत कहलाता है।
यज्ञ, देव-पूजन, श्राद्ध, दान, विवाह, न्यायालय, क्रय-विक्रय, आजीविका आदि के भेदों से यम के पालन में किसी प्रकार का भेद न रखना ' निमित्त(समय) गत सार्वभौम ' महाव्रत है। निष्कर्षत: यह है कि किसी देश अथवा काल में, किसी जीव के साथ, किसी भी निमित्त से, हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार आदि का आचरण न करना तथा परिग्रह आदि न रखना ' सार्वभौम यम महाव्रत ' ही है
 
                                मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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