जो मनुष्य परमेश्वर को अपना परम प्रिय, परम ध्येय और परम इष्ट मानकर भगवती प्रार्थना करता है, वही भगवान का परम प्रिय और भक्त बन सकता है। प्रभु का भक्त बनने पर ही परमात्मा अपने भक्त के सर्वविध योगक्षेम का भार स्वयं वहन करते हैं।
परमात्मा में विश्वास और उनके प्रति स्वार्पण करने वाले मानव भक्त को कभी किसी वस्तु की कमी नहीं रहती। भक्त के इच्छानुसार भगवान उसे सब कुछ प्रदान करते हैं। प्रभु भक्त सर्वदा निर्विकार, निष्काम और निश्चिन्त रहता है।
अतः प्रभुभक्त की परमात्मा से अपने लिये प्रथम तो कभी किसी वस्तु की माँग ही नहीं होती, यदि कभी होती भी है तो वह अपने लिए नहीं, किंतु दूसरों के लिये होती है।
प्रभु भक्त मानव की इस प्रकार की विश्व कल्याणमयी 'मांग 'को "प्रार्थना' शब्द से अभिहित किया गया है। वेदों में मानवता सम्पन्न भगवद्भक्त मानव द्वारा की गयी विश्व कल्याणार्थ प्रार्थना के सम्बन्ध में अनेकानेक वैदिक सूक्तियाँ उपलब्ध हैं,
जिनके स्वाध्याय और मन से विश्वकल्याणकामी मानव के उच्च जीवन, उच्च विचार और उच्च मानवता का सुन्दर परिचय मिलता है। अब हम चारों वेदों की कुछ महत्त्वपूर्ण सूक्तियाँ उपस्थित करते हैं|
यच्छा नः शर्म सप्रथः ॥
"हे भगवन्! आप हमें अनन्त अखण्ड कर परिपूर्ण सुखों को प्रदान करें।' पुनर्ददताघ्नता जानता सं गमेमहि ॥
"हम दानशील पुरुष से, विश्वासघात आदि न करने वाले से और विवेक विचार ज्ञानवान से सत्संग करते रहें।'
भद्रं नो अपि वातय मनो दक्षत ऋतुम्।
"हे परमेश्वर। आप हम सबको कल्याणकारक मन, कल्याणकारक बल और कल्याणकारक कर्म प्रदान करें।'
यजुर्वेद की सूक्तियाँ वयः स्याम सुमतौ।
'हमें सद्बुद्धि प्रदान करो।'
विश्वं पुष्टं ग्रामे अस्मिन्ननातुरम् ॥
'इस ग्राम में सभी प्राणी रोग रहित और हृष्ट-पुष्ट हों।'
मयि धेहि रुचा रुचम् ॥
'हे अग्निदेव! आप मुझे अपने तेज से तेजस्वी बनायें।'
पुनन्तु मा देवजनाः।
'देवा अनुगामी मानव मुझे पवित्र करें।'
मे कामान्त्समर्धयन्तु ।
'देवगण मेरी कामनाओं को समृद्ध (पूर्ण) करें।'
वैश्वानर ज्योतिर् भूयासम् ।
'मैं परमात्मा की महिमामयी ज्योति को प्राप्त करूँ।। सामवेद की सूक्तियाँ जीवा ज्योतिरशीमहि ॥ अस्मभ्यं चित्रं वृषण रयिं दाः ॥
भद्रा उत प्रशस्तयः । 'हमें कल्याणकारिणी स्तुतियाँ प्राप्त हों।'
'हम शरीरधारी प्राणी विशिष्ट ज्योति को प्राप्त करें।'
'हमें अनेक प्रकार के मनोरथों को पूर्ण करने वाला धन दो।"
मदेम शतहिमाः सुवीराः ॥ ‘हम सुंदर पुत्रों के सहित सैकड़ों हेमन्त ऋतु पर्यन्त
प्रसन्न रहें।'
कृधी नो यशसो जने। 'हमें अपने देश में यशस्वी बनाओ।'
नः सन्तु सनिषन्तु नो धियः ॥ 'हमारी देव विषयक स्तुतियाँ देवताओं को प्राप्त हों।'
विश्वे देवा मम शृण्वन्तु यज्ञम् । 'सम्पूर्ण देवगण मेरे मान करने योग्य पूजन को स्वीकार करें।'
अहं प्रवदिता स्याम् ॥ 'मैं सर्वत्र प्रगल्भता से बोलने वाला बनूँ ।
शिवा नः सन्तु वार्षिकीः ॥
'वर्षाद्वारा प्राप्त जल हमारे लिये कल्याणकारी हो।'
पितेव पुत्रानभि रक्षतादिमम् ॥
'हे भगवन्! जिस प्रकार पिता अपने अपराधी पुत्र की रक्षा करता है, उसी प्रकार आप भी इस (हमारे) बालक की रक्षा करें।'
विश्वकर्मन् नमस्ते पाह्यस्मान् ॥
'हे विश्वकर्मन्! तुमको नमस्कार है, तुम हमारी रक्षा करो।'
तस्य ते भक्तिवांसः स्याम ॥
"हे प्रभो! हम तुम्हारे भक्त बनें।'
कामानस्माकं पूरय ॥
'हे देवगण! आप अभिलषित वस्तुओं से हमें परिपूर्ण करें।'
शतं जीवेम शरदः सर्व वीराः ॥
'हम स्वाभिलषित पुत्र-पौत्रादि से परिपूर्ण होकर सौ वर्ष तक जीवित रहें।'
मा नो द्विक्षत् कश्चन ॥
'हमसे कोई भी कभी शत्रुता करने वाला न हो।'
निर्दुरर्मण्य ऊर्जा मधुमती वाक् ॥
'हमारी शक्ति शालिनी मीठी वाणी कभी भी दुष्ट स्वभाव वाली न हो।'
शं मे अस्त्वभयं मे अस्तु ॥
'मुझे कल्याण की प्राप्ति हो और कभी किसी प्रकार का भय मुझे न हो।'
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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