Published By:दिनेश मालवीय

दान का बखान करने से पुण्य क्षीण होते हैं, महाभारत में है सुंदर कथा.. दिनेश  मालवीय

 दान का बखान करने से पुण्य क्षीण होते हैं, महाभारत में है सुंदर कथा.. दिनेश  मालवीय 

 

सनातन धर्म में दान को बहुत महत्त्व दिया गया है. धन की तीन गतियाँ बतायी गयीं हैं- दान, भोग और नाश. इनमें दान को सबसे श्रेष्ठ गति माना गया है. इसका मतलब यह हुआ, कि जो धन दान के लिए खर्च हो वह उसका सबसे अच्छा उपयोग है. जो धन भोग के काम आये, वह दूसरी श्रेणी का है. जिस धन का नाश हो जाए, यानी जो न दान में काम आये और न भोग में, वह सबसे नीचा है. दान के महत्त्व को हमारे शास्त्रों में बहुत प्रकार से बतलाया गया है. दान किसको दिया जाए, कहाँ दिया जाये और कैसे दिया जाए, इस सबका विवरण बहुत विस्तार से बताया गया है. लेकिन दान के सम्बन्ध में सबसे बड़ी बात यह कही गयी है, कि दान को गुप्त रखना चाहिए. अपने किये हुए दान का भूलकर भी कहीं बखान नहीं करना चाहिए. ऐसा करने से दान से प्राप्त होने वाले पुण्य का क्षय हो जाता है.

 

सनातन धर्म में धर्म और नैतिकता के संदेश कथाओं के माध्यम से दिए गये हैं. दान का बखान नहीं करने के सम्बन्ध में महाभारत के वनपर्व में एक बहुत सुंदर कथा आती है. एक बार महर्षि विश्वामित्र के पुत्र अष्टक ने अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें सब राजा लोग पधारे. अष्टक के तीन भाई- प्रतर्दन, वसुमना और उशीनर के पुत्र शिबि भी उस यज्ञ में आये थे. यज्ञ के बाद एक दिन अष्टक अपने भाइयों के साथ रथ पर सवार होकर स्वर्ग की ओर जा रहे थे. रास्त में उन्हें देवर्षि नारद आते दिखे. तीनों भाइयों ने उन्हें अपने रथ पर बैठा लिया. उनमें से एक ने नारदजी से पूछा,कि  हम चारों को दीर्घकाल तक उपभोग में आने वाले स्वर्गलोक में जाना है, लेकिन वहां से सबसे पहले कौन धरती पर उतरेगा? देवर्षि ने कहा, कि सबसे पहले अष्टक उतरेगा.

 

कारण पूछने पर नारदजी ने बताया, कि एक दिन मैं अष्टक के घर गया था. वह रथ में बैठाकर मुझे भ्रमण के लिए ले जा रहा था. रास्ते में कुछ गायें चरती हुयी दिखीं. मैंने अष्टक से पूछा,कि ये गायें किसकी हैं? अष्टक ने कहा, कि ये मेरी दान की हुयी गायें हैं. इस तरह उसने अपने दान का बखान कर आत्मप्रशंसा की. इसलिए अष्टक को स्वर्ग से सबसे पहले धरती पर आना पड़ेगा. उन लोगों ने नारदजी से फिर प्रश्न किया, कि यदि हम शेष तीनों भाई स्वर्ग में जाएँ, तो सबसे पहले किसे नीचे उतरना पड़ेगा. देवर्षि ने कहा, कि प्रतर्दन को. कारण पूछने पर देवर्षि ने कहा, कि एक दिन मैं प्रतर्दन के घर गया था. वह मुझे रथ में भ्रमण पर ले गया. उस समय एक ब्राह्मण ने आकर उससे एक अश्व देने की याचना की. उसने ब्राह्मण से कहा, कि लौटने पर दे दूंगा. ब्राह्मण ने कहा, कि तुरंत दीजिये. इस  पर उसने अपने रथ का एक घोड़ा खोलकर उसे दे दिया.

 

इतने में ही एक दूसरा ब्राह्मण आया. उसे भी घोड़े की ज़रुरत थी. उससे भी प्रतर्दन ने यही कहा, कि लौटकर दे दूंगा. लेकिन ब्राह्मण के आग्रह करने पर उसने रथ का दूसरा घोड़ा ब्राह्मण को दे दिया. फिर आगे बढ़ने पर एक और ब्राह्मण आया और उसने भी तत्काल एक घोड़ा माँगा. प्रवर्तन ने एक और घोड़ा खोलकर दे दिया. इसके बाद थोड़ा दूर चलने पर एक और ब्राह्मण आया और उसने तत्काल एक घोड़े की माँग ही. राजा ने कहा, कि मैं जल्दी ही अपने गंतव्य पर पहुँच कर घोड़ा दे दूंगा. ब्राह्मण बोला, कि तुरंत चाहिए. तब प्रतर्दन ने उसे घोड़ा तो दे दिया, लेकिन कहा, कि ऐसा करना ब्राह्मणों के लिए उचित नहीं है. नारदजी ने कहा, कि प्रतर्दन ने दान तो किया, लेकिन माँगने वाले की निंदा भी की. इसलिए वह सबसे पहले स्वर्ग से नीचे उतरेगा.

 

नारदजी से फिर पश्न किया गया, कि हम दो भाई जा रहे हैं, उनमें से पहले स्वर्ग से नीचे कौन आएगा? नारदजी ने कहा, कि वसुमना पहले नीचे आएगा. कारण पूछने पर नारदजी बोले, कि एक दिन मैं घूमता-घामता वसुमना के घर जा पहुँचा. उस दिन उसके यहाँ स्वस्तिवाचन हो रहा था. राजा के यहाँ “पुष्परथ” नाम का एक ऐसा रथ था, जो पर्वत,आकाश और समुद्र आदि दुर्गम स्थानों पर भी आसानी आ-जा सकता था. मैं उसीके प्रयोजन से राजा के घर गया था. स्वस्तिवाचन के बाद राजा ने ब्राह्मणों को अपना वह रथ दिखाया. उस समय मैंने उस रथ की बहुत प्रशंसा की. राजा ने कहा, कि आपने रथ कि इतनी प्रशंसा की, तो अब यह रथ आप ही का ही है. लेकिन रथ नहीं दिया. इसके बाद मैं एक दिन राजा के यहाँ उस रथ को प्राप्त करने गया. राजा ने बहुत आवभगत की और कहा, कि मुनिश्रेष्ठ यह रथ आपका ही है. लेकिन रथ नहीं दिया. फिर तीसरी बार मैं उसके यहाँ स्वस्तिवाचन के लिए गया, तब भी उसने रथ का दर्शन कराते हुए कहा, कि आपने “पुष्परथ” के लये इतना अच्छा स्वस्तिवाचन किया. ऐसा कहकर भी उसने रथ मुझे नहीं दिया. यह छल की श्रेणी में आता है. इसी छलपूर्ण व्यवहार के कारण वसुमना पहले स्वर्ग से पृथ्वी पर उतरेगा.

 

फिर उन लोगों ने पूछा,कि यदि आपके साथ हममें से केवल शिबि ही आपके साथ स्वर्गलोक जाएँ, तो पहले कौन उतरेगा? नारदजी बोले, कि मैं पहले पृथ्वी पर उतरूँगा. मैं शिबि की तरह दानी नहीं हूँ. एक दिन एक ब्राह्मण ने शिबि से कहा कि, मैं भोजन करना चाहता हूँ. राजा ने कहा, कि आपके लिए क्या रसोई बनायी जाए, आज्ञा कीजिए. ब्राह्मण ने कहा, यह जो तुम्हारा पुत्र बृहदगर्भ है, इसे मार डालो. फिर उसका दाहसंस्कार करो. इसके बाद अन्न तैयार कर मेरी प्रतीक्षा करो. राजा ने ऐसा ही करके फिर विधिपूर्वक अन्न तैयार क्या. उस अन्न को एक बटलोई में डालकर उसका ढक्कन बंद कर दिया और अपने सिर पर रख लिया. इसके बाद वह ब्राह्मण की खोज में निकल गये. एक व्यक्ति ने बताया, कि वह ब्राह्मण नगर में प्रवेश कर कुपित होकर आपके भवन, कोषागार, शस्त्रागार, अश्वशाला आदि में आग लगा रहा है.

 

यह सब सुनकर भी राजा शिबि के मुख पर कोई विपरीत भाव नहीं आया. राजा के मन में उस ब्राह्मण को लेकर कोई बुरा भाव नहीं आया. राजा ने नगर में आकर ब्राह्मण से कहा, कि भगवन! भोजन तैयार है. ब्राह्मण कुछ नहीं बोला और आश्चर्य से मुंह नीचा किये देखता रहा. तब राजा ने ब्राह्मण को मानते हुए कहा, कि आप भोजन कर लीजिये. ब्राह्मण ने शिबि से कहा, कि यह भोजन आप ही कर लें. शिबि ने ”बहुत अच्च्छा” कहकर बर्तन का ढक्कन खोलकर खाने की इच्छा की. ब्राह्मण ने उसका हाथ पकड़ लिया और कहा, कि राजन! तुमने क्रोध को जीत लिया है. तुम्हारे पास कोई ऎसी वास्तु नहीं है, जिस एतुम ब्राह्मण के लिए नहीं दे सको. ऐसा कहकर ब्रह्मण ने राजा का आदर किया.

 

राजा ने आँख उठाकर देखा, तो उनका पुत्र आगे खडा था. उसने दिव्य वस्त्र और आभूषण पहन रखे थे. उसके शरीर से पवित्र सुगंध निकल रही थी. ब्राह्मण अंतर्धान हो गये. साक्षात विधाता ब्राह्मण का वेश धरकर राजा शिबि की परीक्षा लेने आये थे. मंत्री ने राजा से पूछा, कि महाराज! आप क्या चाहते हैं. सबकुछ चाहते हुए भी आपने यह दु:साहसपूर्ण काम किया. राजा ने कहा, कि मैं यश के लिए दान नहीं देता. धन के लिए अथवा भोगों की लिप्सा से भी दान नहीं करता. यही धर्मात्माओं का मार्ग है. इस प्रकार नारदजी ने शिक्षा दी, कि दान का बखान  नहीं करना चाहिए. जिसे दान दे रहे हो, उसकी निंदा नहीं करनी चाहिये. जिसे कुछ देने का वचन दो, उसे देना ही चाहिए. चौथी शिक्षा यह थी, कि क्रोध पर विजय प्राप्त करनी चाहिए.        

 

 

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