Published By:धर्म पुराण डेस्क

भगवान् श्रीकृष्ण एक थे या अनेक..

भगवान् श्रीकृष्ण एक थे या अनेक..

ईसवी सन् के प्रारम्भ से अथवा उससे भी सैकड़ों वर्ष पहले से हमारे देश के अनेक प्रतिभाशाली एवं अनुभवी महर्षियों ने भगवान् श्रीकृष्ण के चरित्र का वर्णन किया है; किन्तु आधुनिक विद्वानों को छोड़कर किसी को भी यह शंका नहीं हुई कि उनके अच्छे या बुरे, लौकिक अथवा दिव्य जितने भी कर्म प्रसिद्ध हैं वे सारे एक भगवान श्रीकृष्ण के ही द्वारा हुए थे अथवा अनेक व्यक्तियों के द्वारा हुए थे।

यह सम्भव है कि नर देहधारी भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति जो हमारी अतिशय श्रद्धा और भक्ति है उससे अंधे होकर हमने कभी इस बात का विचार भी न किया हो कि गोकुल के गोपाल कृष्ण दूसरे थे और पार्थ-सारथी पाण्डवों के चतुर सखा श्रीकृष्ण दूसरे ही थे। 

जिस श्रीकृष्ण ने बालकपन में गोपियों के साथ स्वच्छंद रूप से विहार किया उसी श्रीकृष्ण ने भगवत गीता के उच्च तत्वज्ञान का उपदेश दिया, यह बात आधुनिक विद्वानों की समझ में नहीं आती। पाश्चात्य विद्वानों में प्रोफेसर जेकोबी (Jacobi) और विण्टरनीज (Winternitz) ने एवं भारतीय विद्वानों में सर भण्डारकरने भगवान के सम्बन्ध में यह प्रश्न उठाया है, जो प्रो० विण्टरनीज़के निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किया गया है

In any case it is a far cry from Krishna, friend of the Pandavas, to the Krishna of Harivansha and the Exalted God Vishnu"

अर्थात जो कुछ भी हो, पाण्डव सखा श्री कृष्ण, हरिवंश के श्रीकृष्ण और भगवान विष्णु एक नहीं, भिन्न-भिन्न थे।

इस उक्ति से हमारे सामने भगवान के तीन विभिन्न रूप उपस्थित होते हैं। पहले यादव पति श्रीकृष्ण पाण्डवों के सखा के रूप में उपस्थित होते हैं और महाभारत का ग्रंथ जिस रूप में आजकल उपलब्ध है उसके अंदर उन्हें। 

भगवान विष्णु का ही अवतार बताया गया है- कम से-कम पांडव और भीष्म आदि तथा कुछ दूसरे लोग भी उन्हें विष्णु का अवतार ही मानते थे। हरिवंश में हमें भगवान् का पौराणिक रूप देखने को मिलता है। इस रूप से उन्होंने ग्वालबालों के साथ अपना बाल्यकाल व्यतीत किया और कंस को मारकर नाम प्राप्त किया और आगे चलकर यद्यपि उन्होंने राजमुकुट धारण नहीं किया किन्तु वे व्यवहार में यादवों के स्वामी बन गये एवं अपने कुल को जरासंध के आक्रमण से बचाकर द्वारका में जाकर राजा की भांति रहने लगे।

तीसरी बार भगवान् श्रीकृष्ण हमारे सामने विष्णु के अवतार के रूप में उपस्थित होते हैं। प्रो० विण्टरनीज का कहना है कि ये तीनों रूप एक ही व्यक्ति के हों, यह बात युक्ति से ठीक नहीं जचती। 

भगवत गीता के श्रीकृष्ण अपने को भगवान विष्णु का अवतार बताते हैं। कोई भी बुद्धिमान पुरुष इस बात को स्वीकार नहीं करेगा कि महाभारत के चतुर श्रीकृष्ण अथवा पुरुषों के नटखट श्रीकृष्ण यही थे। इस अनुमान के आधार पर श्रीकृष्ण सम्बन्धी उपलब्ध ग्रन्थों और प्रमाणों की आलोचना कर ये विद्वान् इस निर्णय पर पहुँचे हैं कि हमारा यह अनुमान ठीक है| कम-से-कम इस बात का तो कोई पर्याप्त प्रमाण नहीं मिला कि यह अनुमान झूठा है और उनकी यह धारणा है कि जिन लोगों ने अभी तक इन तीनों रूपों को एक माना है वे कदाचित् भ्रम में हैं।

इतनी बात तो प्रधान विषय के सम्बन्ध में हुई। अब हमें इस प्रश्न के कुछ अवान्तर विषयों पर विचार करना है। छान्दोग्य उपनिषद में श्रीकृष्ण के लिये 'देवकीपुत्र' शब्द का प्रयोग किया गया है। 

इस बात पर ये सभी विद्वान् बड़ा जोर देते हैं और कुछ समान घटनाओं के आधार पर यह कहते हैं कि 'श्रीकृष्ण को वासुदेव नामक एक सामन्त का पुत्र बताना ठीक नहीं है। उनके 'वासुदेव' नाम से ही यह कल्पना कर ली गयी है कि उनके पिता का नाम वासुदेव था। 

सर रामकृष्ण गोपाल भांडारकर महोदय अपनी 'Vaishnavism, Saivism, ete,' नामक पुस्तक में कहते हैं- 'वृष्णि कुलोदभव महाराज कृष्ण गोकुल में संवर्धित हुए, यह बात उनके अगले जीवन से जिसका वर्णन महाभारत में मिलता है, मेल नहीं खाती है। 

प्रो० विण्टरनीज कहते हैं- 'पाण्डवों के सखा और सलाहकार, भगवद्गीता के सिद्धान्त के प्रचारक, बाल्यकाल में दैत्यों का वध करने वाले वीर, गोपिकाओं के वल्लभ और भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण एक ही व्यक्ति थे, इस बात पर विश्वास होना बहुत कठिन है।'

इस प्रकार इन विद्वानों की यह मान्यता है कि हम लोगों ने श्रीकृष्ण के इन तीन निम्नलिखित प्रमुख रूपों को एक में मिला दिया - (1) गीतावक्ता श्री कृष्ण, (2) पाण्डवों के सखा और सलाहकार महाराज कृष्ण, जो प्रो० जेकोबी के शब्दों में 'अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिये चाहे जिस उपाय का अवलम्बन कर लेते थे' और (3) गोपी वल्लभ श्रीकृष्ण उन्होंने कंस को मारकर अपने बान्धवों को द्वारिका में जाकर बसाया, जहाँ ऊपर (2) में कहे हुए महाराज कृष्ण भी रहते थे।

यहाँ यह कह देना आवश्यक है कि भगवान के चरित्र को जानने की इच्छा करने वालों को चाहिये कि वे पुराणों का और महाभारत का अध्ययन करें, जिसमें भगवान के चरित्र का मुख्य रूप से वर्णन है। 

उपनिषद अथवा ऐसे ही दूसरे ग्रन्थों में इतस्ततः कहीं-कहीं भगवान का उल्लेख मिलता है, जो इस विषय में प्रमाण नहीं माना जा सकता। अतः इस विषय का अधिक विस्तार पूर्वक विवेचन न करके केवल उपर्युक्त सारे ग्रंथों में विस्तृत रूप से दिये हुए भगवान् श्रीकृष्ण के चरित्र का तुलनात्मक विचार किया जाता है। 

महाभारत में प्रधानतया पाण्डवों के ही जीवन-वृत्तांत तथा कार्यों का वर्णन है, भगवान का तो केवल उनके सहायक एवं पथ प्रदर्शक के रूप में उल्लेख मिलता है। इसलिये महाभारत में उनका सविस्तर वृत्तांत मिले, यह आशा नहीं की जा सकती। हाँ, पुराणों में अवश्य ही कहीं अधिक विस्तार पूर्वक और कहीं संक्षेप में भगवान का बाल्यकाल से ही चरित्र मिलता है। इन पुराणों के नाम ये हैं:-

ब्रह्म पुराण, विष्णु पुराण, पद्म पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, भागवत पुराण, वायु पुराण, अग्नि पुराण, लिङ्गपुराण, देवी भागवत और हरिवंश।

इनमें से ब्रह्म पुराण और विष्णु पुराण में जो कथा मिलती है, उसमें दोनों पुराणों में एक-से ही श्लोक मिलते हैं। हाँ, विष्णु पुराण में कहीं-कहीं पाठ-भेद और ब्रह्म पुराण की अपेक्षा कुछ अधिक श्लोक अवश्य मिलते हैं। अन्य पुराणों में यद्यपि कथा एक ही है, किन्तु श्लोक प्रत्येक पुराण में अलग-अलग हैं।

केवल ब्रह्मवैवर्त पुराण में एक नयी बात अधिक विस्तार से कही गयी है वह यह कि उसमें राधा का कृष्ण की प्रधान सखी के रूप में वर्णन मिलता है। वायुपुराण में भिन्न भिन्न राजवंशों के वर्णन के प्रसंग में श्रीकृष्ण चरित्र का भी वर्णन किया गया है और हरिवंश में तो जो महाभारत का 'खिल' (परिशिष्ट) माना गया है, केवल श्रीकृष्ण की ही कथा का वर्णन है।

यह निर्विवाद है कि भिन्न-भिन्न पुराणों में वर्णित श्री कृष्ण चरित के तुलनात्मक अध्ययन से यह सिद्ध होता है कि उसमें कहीं-कहीं मामूली अंतर भले ही हो परन्तु कथा का मुख्य विषय सर्वत्र एक ही है।

(लेखक- श्रीयुत एस० एन० ताडपत्रीकर, एम० ए० भांडारकर इन्स्टिट्यूट, पन्ना)


 

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