 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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गंगाजल का महिमा का कहना ही क्या है, जिसके स्पर्श मात्र से बड़े-बड़े पाप दूर हो जाते हैं। उसके स्वास्थ्य सम्बन्धी गुणों का भी प्राचीन काल से उल्लेख मिलता है। चरकने, जिनका काल आधुनिक विद्वानों द्वारा आज से लगभग दो हजार वर्ष पहले माना जाता है|
लिखा है हिमालय से निकलने वाले जल पथ्य हैं हिमवत प्रभवः पथ्यः । इसमें विशेष रूप से गंगाजल का ही संकेत है; क्योंकि इस वचन के आगे ही आता है पुण्या देवर्षि सेवितः । वाग्भट कृत 'अष्टांग हृदय' में, जिसका निर्माण काल ईसवी सन् की आठवीं या नवीं शताब्दी माना जाता है, इसको स्पष्ट किया गया है|
हिमवन्मलयोद्भूताः पथ्यास्ता एव च स्थिराः । चक्रपाणिदत्त ने भी, जो सन् 1060 के लगभग हुए, लिखा है कि हिमालय से निकलने के कारण गंगाजल पथ्य है|
यथोक्त लक्षण हिमालय भवत् देव गाङ्गं पथ्यम् । भण्डारकर ओरिएंटल इंस्टीट्यूट, पूना में अठारहवीं शताब्दी का एक हस्तलिखित ग्रन्थ है- 'भोजनकुतूहल'; उसमें कहा गया है कि गंगाजल श्वेत, स्वादु, स्वच्छ, अत्यन्त रुचिकर, पथ्य, भोजन पकाने योग्य, पाचन शक्ति बढ़ाने वाला, सब पापों को हरने वाला, प्यास को शान्त तथा मोह को नष्ट करने वाला, क्षुधा और बुद्धि को बढ़ाने वाला होता है|
शीतं स्वादु स्वच्छमत्यन्त रुच्यं पथ्यं पाक्यं पाचनं पापहारि ।
तृष्णामोहध्वंसनं दीपनं च प्रज्ञां धत्ते वारि भागीरथीयम् ॥
इस तरह गंगाजल के स्वास्थ्य सम्बन्धी गुणों पर बराबर अपने यहाँ जोर दिया गया है। इन्हीं गुणों पर मुग्ध होकर विदेशियों और हिंदुओं को भी इसे अपनाना पड़ा। इब्नबतूता ने सन् 1325-54 अफ्रीका तथा एशिया के कई देशों की यात्रा की थी।
वह भारत भी आया था। वह अपने यात्रा-वर्णन में लिखता है कि सुलतान मुहम्मद तुगलक के लिये गंगाजल बराबर दौलताबाद जाया करता था। उसके वहाँ पहुँचने में 40 दिन लग जाते थे।
मुगल बादशाह अकबर को तो गंगाजल से बड़ा ही प्रेम था। अबुल फजल अपने 'आई ने अकबरी' में लिखता है कि 'बादशाह गंगाजल को 'अमृत समझते हैं और उसका बराबर प्रबन्ध रखने के लिये उन्होंने योग्य व्यक्तियों को नियुक्त कर रखा है। वे बहुत पीते नहीं हैं, पर तब भी इस ओर उनका बड़ा ध्यान रहता है। घर में या यात्रा में वे गंगाजल ही पीते हैं।
कुछ विश्वासपात्र लोग गंगातट पर इसलिए नियुक्त रहते हैं कि वे घड़ों में गंगाजल भरकर और उस पर मुहर लगाकर बराबर भेजते रहें। जब बादशाह सलामत राजधानी आगरा या फतेहपुर सीकरी में रहते हैं, तब गंगाजल सोरों से आता है और जब पंजाब जाते हैं, तब हरिद्वार से।
खाना पकाने के लिये वर्षा जल या यमुना जल, जिसमें थोड़ा गंगाजल मिला दिया जाता है, काम में लाया जाता है।' अकबर के धार्मिक विचार दूसरे प्रकार के थे; इसलिए उन्हें यदि गंगाजल में श्रद्धा हो तो कोई आश्चर्य नहीं। पर सबसे मजे की बात तो यह है कि कट्टर मुसलमान औरंगजेब का भी काम बिना गंगाजल के न चलता था।
फ्रांसीसी यात्री बर्नियर, जो भारत में सन् 1459-67 तक रहा था और जो शहजादा दाराशिकोह की चिकित्सक था; अपने 'यात्रा विवरण' में लिखा है कि 'दिल्ली और आगरा में औरंगजेब के लिये खाने-पीने की सामग्री के साथ गंगाजल भी रहता था।
यात्रा में भी इसका प्रबंध रहता था। स्वयं बादशाह ही नहीं, दरबार के अन्य लोग भी गंगाजल का व्यवहार करते थे। बर्नियर लिखता है कि ऊँटों पर लदकर यह बराबर साथ रहता था। प्रतिदिन सवेरे नाश्ते के साथ उसको भी एक सुराही गंगाजल भेजा जाता था। यात्रा में मेवा, फल, मिठाई, गंगाजल, उसको ठंडा करने के लिये शोरा और पान बराबर रहते थे।
फ्रांसीसी यात्री टैवर्नियरने भी, जो उन्हीं दिनों भारत आया था, लिखा है कि इसके स्वास्थ्य संबंधी गुणों को देखकर मुसलमान नवाब इसका बराबर व्यवहार करते थे। कप्तान एडवर्ड मूर, जो ब्रिटिश सेना में था और जिसने टीपू सुल्तान के साथ युद्ध में भाग लिया था, लिखता है कि सबन्नर (शाहनवर) के नवाब केवल गंगाजल ही पीते थे। इसको लाने के लिये कई ऊँट तथा ‘आबदार' रहते थे।
श्री गुलाम हुसैन ने अपने बंगाल के इतिहास ‘रियाजु-स-सलातीन' में लिखा है कि मधुरता, स्वाद और हलकेपन में गंगाजल के बराबर कोई दूसरा जल नहीं हैं, कितने ही दिनों तक रखे रहने पर भी यह बिगड़ता नहीं। 'श्री वेंकटेश्वर ओरिएंटल इंस्टीट्यूट, 'तिरुपति' की पत्रिका (अनायास) के खंड 1 भाग 3 (सितंबर 1940) में पूना के श्रीगोड का 'मुसलमान शासकों द्वारा गंगाजल के व्यवहार' पर एक अच्छा लेख है। किसी भाव से सही, गंगाजल के व्यवहार से हिंदुओं का भी हित ही हुआ होगा।
टैवर्नियर के यात्रा - विवरण से यह भी पता लगता है कि उन दिनों हिंदुओं में विवाह के अवसर पर भोजन के पश्चात् अतिथियों को गंगाजल पिलाने की चाल थी। इसके लिए बड़ी-बड़ी दूर से गंगाजल मंगाया जाता था। जो जितना अमीर होता था, उतना ही अधिक गंगाजल पिलाता था। दूर से गंगाजल मँगाने में खर्च भी बहुत पड़ता था।
टैवर्नियर का कहना है कि शादियों में कभी कभी इस पर दो-तीन हजार रुपये तक खर्च हो जाते थे। पेशवाओं के लिये बहँगिया (कावड़ी) में रखकर गंगाजल पूना जाया करता था। मराठी पुस्तक 'पेशवाईच्या सावलीत' (पूना 1937) से पता लगता है कि काशी से पूना ले जाने के लिये एक बहंगी गंगाजल का खर्च 20 रुपया और पूना से श्री रामेश्वरम ले जाने के लिये 40 रुपया पड़ता था, जो बहुत नहीं कहा जा सकता।
गढ़मुक्तेश्वर तथा हरिद्वार से भी पेशवाओं के लिये गंगोदक जाता था। श्री बाजीराव पेशवा को बताया गया था, गंगाजल के सेवन से ऋण मुक्त हो जाएंगे— 'श्री तीर्थ सेवन करून महाराज चिकर्त-परिहार ह्वावा।' मरते समय गंगोदक देने की चाल तो सुदूर दक्षिण में भी थी। विजयनगर के राजा कृष्ण राय को, जब वे सन 1525 में मृतप्राय थे, गंगोदक दिया गया और वे अच्छे हो गये।
(विजयनगर, थर्ड डायनेस्टी 1935) ने भूटान युद्ध का अंत होने पर तिब्बत के तूशीलामाने वारेन हेस्टिंग्स के पास एक दूत भेजकर गंगा तट पर कुछ भूमि मांगी और वहाँ पर एक मठ तथा मन्दिर बनवाया; क्योंकि 'गंगा हिंदुओं के लिये ही नहीं, बौद्धों के लिए भी पुनीत है।' यह मठ और भूमि जो 'भोट बागान के नाम से प्रसिद्ध है, तूशीलामाने श्री पूर्णागिरि को दान की।
यदि कोई गंगा का इतिहास लिखे, जैसा कि श्री लुडविग ने नील नदी का लिखा है, तो कितना रोचक हो ?
गंगा-यमुना के गुण:
ऊपर यह दिखाया गया है कि स्वास्थ्य की दृष्टि से पहले हिंदू भी गंगाजल को कितना अधिक व्यवहार में लाया करते थे। इधर श्री गंगा तथा यमुना दोनों के जलों के स्वास्थ्य संबंधी गुणों का कुछ और पता लगा है।
विज्ञानाचार्य श्री हैनबरी हैंकिन किसी समय युक्त प्रान्त तथा मध्य प्रान्त की सरकारों के 'रसायन-परीक्षक' (केमिकल एग्जामिनर) थे। अपने 'पासचर इंस्टीट्यूट' की फ्रांसीसी पत्रिका में सन् 1896 में एक लेख लिखा था। उसका अंग्रेजी अनुवाद रांची से निकलने वाले 'मैन इन इंडिया' नामक त्रैमासिक पत्र, जिल्द 18, अंक 2-3 (अप्रैल सितम्बर, 1938) में प्रकाशित हुआ था। उस लेख का सार यहाँ दिया जा रहा है।
श्री हँकिन साहब लिखते हैं कि 'श्री गंगा तथा यमुना को हिंदू जैसा पवित्र समझते हैं, वह सभी को ज्ञात है। विदेशियों को और बहुत-से अंग्रेजी-शिक्षा प्राप्त हिंदुओं को उनकी यह श्रद्धा अविवेकपूर्ण जंचती है। जब किसी बड़े नगर के समीप इनके गंदे और मटीले जलों में हजारों लोगों को नहाते और पशुओं तथा कपड़ों को धोते हुए कोई देखता है|
जब वह यह याद करता है कि प्रायः अधजली लाशें इसमें फेंक दी जाती हैं, तब उसके लिये यह सोचना स्वाभाविक ही है कि इन नदियों का जल पीना कितना खतरनाक है और हिंदुओं में इनके प्रति जो श्रद्धा-भक्ति है, वह उनके शुद्धता सम्बन्धी नियमों के अज्ञान का प्रमाण है।'
हैजा के अधिक प्रकोप का अभी तक यूरोपीय विद्वान यह एक कारण मानते रहे हैं। उनकी राय में यह रोग गंगा द्वारा फैलाया जाता है, क्योंकि उसका जल इसके कीटाणुओं का प्रत्यक्ष कर दिया है कि गंगा तथा यमुना का जल अन्य घर है। परंतु हलकी वैज्ञानिक खोजने यह नदियों के जल से कहीं अधिक शुद्ध है। श्री गंगा और यमुना का जल|
(लेखक - पं० श्रीगंगाशंकरजी मिश्र, एम०ए०)
 
 
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