Published By:अतुल विनोद

हमारे और इस विराट में अंतर है नहीं बस दिखाई पड़ता है।
एक ही पल में सूक्ष्म विराट बन सकता है। विराट सब कुछ कर सकता है। वह सब जानता है। वह पूर्ण है। उसमें कोई कमी नहीं है उसे नित्य कहा गया है। वह अकाल पुरुष है। वह सर्वव्यापी है। वह कण-कण में व्याप्त है।
ये स्वयं घटित होने वाली घटना है। इसी को स्व का तंत्र कहते हैं। इसलिए स्वतंत्र से सब चलता रहता है। धर्म शास्त्र कहते हैं शिव की स्वातन्त्रय से विश्व में महारास चल रहा है। शिव के पास माया नाम की एक शक्ति है। यही शक्ति मंच है और इसी मंच पर महारास होता है।
अनादि काल से महोत्सव चलता आ रहा है और अनंत काल तक यह महारास चलता रहेगा। जब मनुष्य इस तंत्र को अपना दर्शन बना लेता है तो उसकी आंखें खुल जाती हैं। उसका स्व, सर्व बन जाता है।
पशु, पशुपति बन जाता है। परम पुरुष कला के संपर्क में आने से सर्वकर्ता से अल्प करता बन जाता है। विद्या के संपर्क से सर्वज्ञ अल्पज्ञ बन जाता है।
नियति के संपर्क से सर्वव्यापक शरीर बन जाता है। राग से पूर्ण अपूर्ण बन जाता है। काल से वह नित्य अकाल पुरुष अनित्य बन जाता है।
पशु भाव व्यक्ति भाव है और शिव भाव विराट भाव है। सोचने की दिशा बदलते हैं तो हम बदल जाते हैं।
परम शिव ही विश्व है।
5 महाभूत, 11 इंद्रियां, 5 तन्मात्रा, 2 बुद्धि अहंकार, दो प्रकृति, पुरुष, 6 कंचुक, 5 शुद्ध, विद्या, ईश, सदाशिव, शक्ति और शिव से ये तंत्र बना है।
अज्ञान बंधन है शास्त्र उसे मल कहते हैं। पूर्ण ज्ञान के उदय होने पर अज्ञान और मल निर्मूल हो जाते हैं। सारे मल समाप्त हो जाते हैं। मुक्ति सुलभ हो जाती है।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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