Published By:धर्म पुराण डेस्क

ब्राह्मणों के कर्तव्य क्या हैं?  

क्योंकि संविधान केवल नागरिकों को मान्यता देता है और नागरिकों में अल्पसंख्यकों को अपने धर्म और संस्कृति की रक्षा का विशेष अधिकार देता है तथा कार्यकर्ताओं को विविध स्तरों पर बहुत से अधिकार देता है। परन्तु बहुसंख्यक समाज के किसी भी वर्ग या श्रेणी को वह कोई भी मान्यता नहीं देता। ऐसी स्थिति में ब्राह्मणों के ऊपर दोहरा दायित्व है। सर्वप्रथम तो उन्हें एक ऐसा शासन लाने का प्रयास करना चाहिये जो वर्तमान समय में विश्व के अन्य सभी महत्वपूर्ण नेशन स्टेट में है। अर्थात वहाँ के बहुसंख्यक समाज के धर्म को विधिक रूप से पूर्णतः संरक्षण देना और अधिकृत रूप से उसके प्रकार एवं प्रभाव वृद्धि के लिये कार्य करना। इस दिशा में आज तक भारत में किसी ने भी कोई कार्य नहीं किया है। संस्कार रूप से अपने स्तर पर सभी महत्वपूर्ण धर्मनिष्ठ ब्राह्मण धर्म का संरक्षण और पालन करते रहे हैं परन्तु भारत के वर्तमान शासन के इस भयंकर अभाव की ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया। महाभारत का निर्देश है - ‘राजानं प्रथमं विन्देत। ततो भार्या ततो धनं’। अतः एक सामान्य शासन भारत में भी आये, इस दिशा में सोचना ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों और शिल्पियों तथा समस्त सेवक वर्ग का कर्तव्य है। 

इसके अतिरिक्त यह ध्यान में रखना चाहिये कि धर्म शास्त्रों के अनुसार ब्राह्मण वर्ण भी है और जाति भी। जाति में उत्पन्न होकर ब्राह्मण के कार्य नहीं करने वाले को ब्रह्म बंधु या ब्रह्मबांधव कहा जाता है। ऐसे ब्रह्मबांधवों की विशाल संख्या है। अतः उसके विषय में भी सोचना चाहिए। प्रयास होना चाहिये कि वे कम से कम 11 बार गायत्री मंत्र का जप नित्य करें। 

परन्तु इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि 19वीं शताब्दी ईस्वी तक निरंतर धर्मशास्त्रों पर भाष्य और टीकायें लिखे जाते रहे हैं तथा उनका सम्मान शासन के स्तर पर होता रहा है। मान्यवर काशीनाथ उपाध्याय ने ‘धर्मसिन्धुसार’ नामक वृहद ग्रंथ लिखा। वे 19वीं शताब्दी ईस्वी के प्रारंभ में ब्रह्मलोक पधारे। मान्यवर जगन्नाथ तर्कपंचानन ने ‘विवादसारार्णव’ नामक निबन्ध लिखा। जिसे अंग्रेजों ने हिंदुओं से संबंधित विवादों के लिए प्रामाणिक ग्रंथ माना। 

इसी प्रकार विज्ञानेश्वर की मिताक्षरा पर आचार्य बालकृष्ण ने ‘बालम्भट्टी’ नामक भाष्य लिखा। जिसमें निर्णयसिन्धु, भगवन्तभास्करः, मीमांसासूत्र पर भाट्टदीपिका आदि अनेक ग्रंथों का प्रामाणिक उल्लेख दिया गया है। कोलब्रुक उन्हें बहुत बड़ा पंडित मानते थे। वे भी 19वीं शताब्दी ईस्वी के पूर्वाद्ध में ही गये। उसके पहले वाचस्पति मिश्र, नारायण भट्ट, टोडरानन्द (जलालुद्दीन अकबर की राजसभा में धर्मविषयक पंडित नवरत्न), नन्दपंडित, कमलाकर भट्ट, नीलकंठ भट्ट, मित्रमिश्र, अनंतदेव, नागोजिभट्ट आदि की विराट परंपरा 15वीं से 18वीं शताब्दी ईस्वी तक समस्त भारत में शासन द्वारा सर्वमान्य रही। परन्तु इंग्लैंड में बपतिस्मा लेकर लौटे कांग्रेसी नेताओं ने 20वीं शताब्दी ईस्वी में यह प्रयास किया कि पंडितों की यह प्रतिष्ठा केवल अतीत की वस्तु मान ली जाये और उन्होंने अंग्रेजों को इस बात के लिये प्रोत्साहित किया कि धर्मविषय में भी निर्णय का एकमात्र अधिकार एंग्लो सेक्सन लॉ के जानकार जजों को ही रहे। तब से यूरो-ईसाई कानूनों के जानकार भारतीय जज ही हिन्दुओं के प्रकरण में धर्मविषय के निर्णायक हो गये। 1937 ईस्वी से यह स्थिति निरंतर चल रही है। 

अल्पसंख्यक समूहों को विशेष संरक्षण दिये जाने के कारण और उन्हें निरंतर आक्रामक बनाने के अनेक राजकीय प्रावधानों और प्रबंधन के कारण उनके मामले में तो उनके आधारभूत मजहबी किताबों का अध्ययन जज साहब लोग करते हैं परन्तु हिन्दू समाज के विषय में वे स्वयं को ही हिन्दू धर्म का ज्ञाता और अधिकारी मानकर दनादन निर्णय देते रहते हैं। जिनमें से अनेक निर्णय धर्मविरोधी होते हैं। परन्तु माननीय धर्मनिरपेक्ष शासकों के द्वारा समादृत होते हैं। ऐसी स्थिति में वस्तुतः शासन के स्तर पर हिन्दुओं का धनी-धोरी कोई भी नहीं है। परन्तु सामान्य हिन्दू समाज आज भी धर्म के विषय में ब्राह्मणों को ही अधिकारी मानता है। अतः ब्राह्मणों पर इस काल में बहुत बड़ा दायित्व आ गया है कि वे धर्म के रक्षण और पोषण के लिये अपनी शक्ति का बहुत बड़ा अंश लगायें और केवल बचे हुये अंश से भगवदाधीन रहकर जीविका की व्यवस्था करते हुये तथा अपने लिये सुलभ कोई भी वृत्ति चुनते हुये जीवन का पोषण करें। 

ऐसी स्थिति में जहाँ धर्मशास्त्रों के अध्येता और ज्ञानी ब्राह्मणों का अत्यधिक आदर करना ब्राह्मण समाज का मुख्य कर्तव्य है, वहीं जाति के कारण ब्राह्मण कहे जा रहे लोगों के दैनिक जीवन में कम से कम मांसाहार और नशे के किसी भी प्रकार के सेवन का निषेध करने वाले जाति संगठन अत्यन्त आवश्यक हैं। इन संगठनों को परस्पर आत्मीयता के सूत्र अवश्य विकसित करना चाहिये और राजनीति में भी धर्मनिष्ठ ब्राह्मणों की प्रभावी उपस्थिति के लिये कार्य करना चाहिये। 

इसके साथ ही, प्रत्येक ब्राह्मण को अपनी प्रतिभा, सामर्थ्य एवं अवसर के अनुसार वृत्ति को ग्रहण कर यथाशक्ति नियमित संध्या उपासना, शौचाचार और स्वाध्याय करना ही चाहिये। 

सबसे अधिक आवश्यक यह है कि धर्मशास्त्रों में जितने कठिन और कठोर नियम ब्राह्मणों के लिये प्रतिपादित हैं, उन पर आचरण करने वाले ब्राह्मणों की पर्याप्त संख्या आज भी भारत में है। स्वयं उत्तरप्रदेश और राजस्थान तथा हिमाचलप्रदेश और दक्षिण भारत के अनेक हिस्सों में ऐसे पूज्य ब्राह्मण पर्याप्त हैं। अतः उनका भरपूर आदर किया जाये। परन्तु किसी भी स्थिति में शेष साधारण ब्राह्मणों और ब्रह्मबंधुओं को उसके लिये प्रताड़ित या निन्दित नहीं किया जाये। क्योंकि शासन धर्मशून्य है और धर्मरक्षा का न्यूनतम कर्तव्य भी नहीं कर रहा है, अतः ब्राह्मण कुलों में उत्पन्न साधारण प्रतिभा वाले और साधारण बुद्धि वाले युवकों-युवतियों के प्रति करूणा और अनुग्रह का भाव रखा जाये और उनकी सामान्य चूकों में कठोर निंदा कदापि नहीं की जाये। क्योंकि इससे ब्राह्मणों की सामान्य स्थिति पर सर्वथा प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और ब्रह्मद्रोहियों को अवसर प्राप्त होता है। 

तप ही ब्राह्मण का मुख्य बल है। द्वंद्वसहन ही मूल तप है। वर्तमान में धर्मशून्य शासन में रहने की विवशता के साथ धर्म का पालन करना सबसे बड़ा द्वंद्व है और इस द्वंद्व को साधना सबसे बड़ा तप है। इसके साथ ही, विभिन्न सिद्धियों के लिये अपनी-अपनी आंकाक्षा, संस्कार और सामर्थ्य के अनुरूप तप में प्रवृत्ति तो स्वाभाविक ही है और जिनकी उन तपों में प्रवृत्ति हो, उनको भरपूर सम्मान और प्रोत्साहन देना चाहिये। मूल बात यह है कि ब्राह्मणों में किसी भी प्रकार का आत्मावसाद नहीं लाना चाहिये। 

ज्ञान के नाम पर जानकारियों के अद्यतन संग्रह और संकलन को ही उत्साहपूर्वक करने वाले ब्रह्म बन्धुओं ने भारत के अनेक क्षेत्रों में कम्युनिज्म तथा सोशलिज्म जैसे पापपूर्ण विचारों को अपनाया है और फैलाया है। यह बहुत बड़ा पाप हुआ है और यह आधारभूत धर्मद्रोह है। प्रायः ब्राह्मण संगठनों के नाम पर भी ऐसे धर्मद्रोहियों को संरक्षण और बल दिया जाता है। जो स्वयं में पाप है। जाति संगठन अत्यन्त महत्वपूर्ण है पर उसके नाम पर जाति और हिन्दू समाज दोनों की जड़ों में मट्ठा डालने वाले विचारों के पोषण को संरक्षण या प्रोत्साहन देना अधर्म है। अतः इससे विरत रहना आवश्यक है। 

यथाशक्ति धर्म शास्त्रों का अध्ययन और समर्थ गुरु के मार्गदर्शन में साधना तथा अपने-अपने कुल की परंपरा का गौरव विस्तार सभी ब्राह्मणों का सामान्य कर्तव्य है। विशेष व्यक्तियों या परिस्थितियों पर पृथक-पृथक चर्चा की जा सकती है। हरिः ॐ तत्सत्। 

 

 

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