Published By:धर्म पुराण डेस्क

भक्ति क्या है भक्ति का वास्तविक अर्थ

हिंदुत्व से सम्बद्ध समस्त विषयों के एकमात्र तथा सर्वश्रेष्ठ प्रमाण वेद ही स्वीकार किये जाते हैं। 

श्रीमद्भागवत गीता और पुराणों की प्रामाणिकता भी वेद के आधार पर ही स्थित है। शिक्षित लोगों के एक बहुत बड़े समुदाय द्वारा यह स्वीकार किया जाता है कि यह हिंदू दर्शन के सारतत्त्व से परिपूर्ण है; क्योंकि यह प्रत्यक्ष रूप से वेदसम्मत है; अतएव भारत में वेदाध्ययन के पुनरुत्थान को ही पूर्ण प्रोत्साहन देना चाहिये।

श्रीमद्भागवत गीता का वचन है कि परमात्मा के सतत ध्यान और अनवरत चिन्तन से मानव का स्वभाव रूपांतरित हो जाता है। विश्व के दूसरे धर्मों में भी ऐसा ही मत अभिव्यक्त है।

उपर्युक्त श्रीमद्भागवत गीता शास्त्र हमें परमात्मा पर ही पूर्ण निर्भर रहने की शिक्षा देता है। उनके ही उपदेशों के अनुरूप हम जो कुछ भी कर सकते हैं, करें; दूसरी सभी बातें हम उन्हीं पर छोड़ दें। वे उनका स्वयं ही ध्यान रखते हैं। 

हमें इस संबंध में उन्हें कर्तव्याकर्तव्य के लिये स्मरण दिलाने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। वे सर्वज्ञ हैं, सब कुछ करते हैं, इसलिये उन्हीं पर छोड़ देना चाहिये। उनकी उच्च स्वर से वह घोषणा है-

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। 

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥

'सब धर्मों का परित्याग करके एकमात्र मेरे (भगवान के) शरण पन्ना हो जाओ, मैं तुम्हें सब पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम सोच मत करो।'

पूर्ण निश्चिन्तता से मार्ग पर चलकर ध्येय तक पहुँचने में भक्ति हमारी पूर्ण सहायता करेगी। परमात्मा केवल सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् ही नहीं हैं, अपने भक्त की सहायता करने वाले- योगक्षेम का निर्वाह करने वाले ही नहीं हैं, वे भक्त के भक्त भी हैं। 

यह कहा जाता है कि परमात्मा प्रेम हैं। वे उन लोगों की दृष्टि में जिनकी उनमें श्रद्धा है केवल प्रेमी मात्र ही नहीं हैं, प्रेमस्वरूप भी हैं। आवश्यकता केवल इतनी ही है कि उन्हें हम अपना सर्वस्व समर्पण कर दें।
 

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