हम सब की ख्वाहिशें इतनी ज्यादा होती हैं कि वह धीरे-धीरे तृष्णा में बदल जाती हैं। व्यक्ति इच्छा करते-करते लालची हो जाता है। और कहते हैं कि लालच बुरी बला।
आपने बड़े से बड़े निडर और बलवान के विषय में सुना होगा, पढ़ा होगा या हो सकता है कि देखा और अनुभव भी किया हो पर आपने कभी इस पर शायद ही विचार किया हो कि तृष्णा जैसा निडर और बलवान कोई नहीं। इस जैसा दीर्घायु भी कोई नहीं।
तृष्णा अच्छे-अच्छों को प्रभावित कर लेती है और पराजित कर देती है। हम इसके मोह में फंस जाएं, और फंसते ही हैं, तो इससे पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जाता है। हमारे चेहरे पर झुर्रियां पड़ती जाती हैं, बाल सफेद होते जाते हैं, हमारा अंग-अंग ढीला पड़ता जाता है यानी हम बूढ़े होकर खस्ताहाल होते जाते हैं पर हमारी तृष्णा और तरुण होती जाती है।
यह कितनी हैरानी की बात है कि जवानी को बुढ़ापे का डर होता है, निरोगी शरीर को रोगों का डर रहता है, इस जीवन को मृत्यु का डर रहता है पर तृष्णा को किसी का डर नहीं होता, इसे पराजित करना या इसे नष्ट करना आसान नहीं होता।
उमंग और शक्ति से भरा यौवन चला जाता है, मोती जैसे सुन्दर दांत गिर जाते है, काले घुंघराले सुन्दर केश सफेद होकर घास फूस जैसे हो जाते हैं, रसभरी मादक आंखें रूखी और बेनूर हो जाती है, ठीक से दिखता नहीं और न सुनाई देता है, बिना सहारे के चला जाता नहीं, ऐसी स्थिति में भी तृष्णा कम नहीं होती। हम खत्म हो जाते है तृष्णा खत्म नहीं होती। हम तृष्णा को पूरी तरह भोग नहीं पाते उल्टे तृष्णा ही हमारा भोग लगा लेती है।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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