तत्पूर्त्यर्थ निम्न पंक्तियाँ है—
पहले इसमें वैदिक प्रमाण भी जान लेना चाहिये । मनु जी ने कहा है-
चूडाकर्म द्विजातीनां सर्वेषामेव धर्मतः ।
प्रथमेऽब्दे तृतीये वा कर्तव्यं श्रुतिचोदनात् ॥
यहाँ पर वेद के कहने से शिखा का रखना कहा गया है। वेद के दो भाग हैं- मन्त्र भाग तथा ब्राह्मण भाग। इसमें मन्त्र भाग का प्रमाण यह है-
यत्र बाणाः सम्पतन्ति कुमारा विशिखा इव ।
'विशिखा:' का भाव है- गोखुर के परिमाण की शिखा वाले। दूसरा मंत्र यह है-
आत्मन्नुपस्थे न वृकस्य लोम मुखे श्मश्रूणि न व्याघ्रलोम ।
केशा न शीर्षन् यशसे श्रियै शिखा, सिरहस्य लोम त्विषिरिन्द्रियाणि ।
यहाँ पर 'श्री' के लिये शिखा धारण करना कहा है; यहाँ पर शिखा के बालों को सिंह के लोम से उपमा दी गयी है। अब ब्राह्मण भाग का प्रमाण देखिये - अथापि ब्राह्मणम् – रिक्तो वा एषोऽनपिहितो यन्मुण्डः; तस्य एतद् अपिधानं यत् शिखा।
यहाँ पर शिखा रहित को शून्य अर्थात् श्रीहीन कहा है। अन्य प्रमाण भी इस विषय में बहुत हैं; पर स्थान नहीं। अब इसका रहस्य समझना चाहिये। यजुर्वेदीय 'तैत्तिरीयोपनिषद्' के शिक्षाध्याय नामक प्रथम वल्ली के छठे अनुवाक की प्रथम कण्डिका में कहा है-
अन्तरेण तालुके । य एष स्तन इवावलम्बते । सेन्द्रयोनिः । यत्रासौ केशान्तो विवर्तते । व्यपोह्य शीर्षकपाले।
अर्थात तालु के मध्य में स्तन की तरह जो केशराजि दिखती है, यहाँ केशों का मूल है। वहाँ सिर के कपाल का भेदन करके 'इन्द्रयोनि' – इन्द्र अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग सुषुम्णा नाड़ी है।
योगी लोग सुषुम्णा नाड़ी को प्रबुद्ध करके उससे आत्म साक्षात्कार करते हैं। यह नाड़ी अपने मूल स्थान से होती हुई ललाट के मध्य में विचरती है। योगी लोग जिसे सुषुम्णा का मूल स्थान कहते हैं, वैद्य लोग उसे 'मस्तुलिंग कहते हैं। 'मस्तुलिंग' के साथ वाले अग्रभाग को योग विद्या निष्णात 'ब्रह्मरंध्र' कहते हैं; वैद्य उसे 'मस्तिष्क' कहते हैं।
वैद्यों का यह अभिप्राय है कि सारे शरीर में प्रधान अंग है सिर! सब शरीर में व्याप्त नाड़ियों का सिर से सम्बन्ध है। मनुष्य जीवन का केंद्र भी सिर ही है। | सिर में दो शक्तियां रहती हैं-एक ज्ञान शक्ति, दूसरी कर्म शक्ति। इन दोनों शक्तियों की परम्परा नाड़ियों द्वारा सारे शरीर में फैलती हैं।
इसलिए शरीर में भी ज्ञान और कर्म- ये दो विभाग हैं। इन दोनों विभागों का मूलस्थान | वही सुषुम्णा का मूलस्थान मस्तुलिंग तथा मस्तिष्क है। मस्तुलिंग कर्मशक्तिका केन्द्र है और मस्तिष्क ज्ञान शक्ति का। मस्तिष्क के साथ ज्ञानेन्द्रियों कान, नाक, आँख, जीभ, त्वचा का सम्बन्ध है और हाथ, पैर, गुदा, इन्द्रिय वाणी-इन कर्मेन्द्रियों का मस्तुलिंग से सम्बन्ध होता है। मस्तिष्क तथा मस्तुलिंग जितने अधिक स्वस्थ या सामर्थ्यवान होंगे, ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रियों में भी उतनी शक्ति बढ़ेगी। उन दोनों के अस्वास्थ्य से इन इन्द्रियों में भी त्रुटि हो जाती है।
प्रकृति की विलक्षण महिमा से दोनों ही स्थलों की प्रकृति भिन्न-भिन्न है। मस्तिष्क ठंडक चाहता है, मस्तुलिंग गर्मी। मस्तिष्क की ठंडक के लिये क्षौर बनवाया जाता है, तेल, फुलेल, जल, वायु आदि का सेवन करना पड़ता है। शिरोवेदना में तालुके बाल कटाने से वेदना शांत हो जाया करती है।
अब रहा मस्तुलिंग का प्रश्न है कि उसमें कितनी गर्मी अपेक्षित है। गर्मी की न्यूनाधिकता से नाड़ियों में प्रकोप हो सकता है, उससे कई हानियाँ सम्भव हैं। अतः उसमें चाहिये मध्यम गर्मी। वह गर्मी कपड़े आदि से नहीं जा सकती; क्योंकि उनके गुण भिन्न-भिन्न होते हैं। अत: उनसे पूर्ण लाभ संभव नहीं।
यह बात भी निश्चित है कि जो वस्तु जिससे उत्पन्न होती है, वही उसकी वास्तविक सहायक होती है। जैसे कि घड़ा मिट्टी से बनता है, उस घड़े के प्रत्येक अवयवकी पूर्ति भी मिट्टी से ही हो सकती है, जल अग्नि आदि से नहीं। 'मस्तुलिंग' भी सिर का एक भाग है; उसकी रक्षा भी सिर से उत्पन्न पदार्थ से ही हो सकती है, टोपी-हैट से नहीं। शिरोजात पदार्थ हैं बाल ।
अतः वहाँ गोखुर के परिमाण के बाल ही मध्यम गर्मी ला सकते हैं, अन्य बाल नहीं। यह पहले ही कहा जा चुका है कि मस्तिष्क शैत्य चाहता है और मस्तुलिंग उष्णता तो मस्तिष्क की शीतलता के लिये वहाँ के केश थोड़े चाहिये पर मस्तुलिंग की उष्णता के लिये वहाँ घनीभूत केशों की आवश्यकता होती है।
इस कारण मस्तुलिंग में सदा ही गहरे बाल रहें, अन्य केशों से उनकी विशेषता या उच्चता रहे; इसलिये उसका विशेष नाम भी 'शिखा' रखा गया है। धर्मप्रवर्तक होने से उसका सम्बन्ध धर्म के साथ है। इधर संध्या आदि के अवसर पर परमात्मा की कृपा शिखा द्वारा ही हमारे अंदर पहुँचती है; तभी नंगे सिर होकर सन्ध्या करने का नियम है। इसी कारण 'तैत्तिरीयोपनिषद्' ने इस स्थान का नाम 'इन्द्रयोनि' रखा है।
संन्यास में शिक्षा का त्याग अपवाद है। सामान्यतया संन्यास का विधान 75 वर्षों के बाद होता है। तब आयु की वृद्धि हो जाने से शरीर की पूर्णता हो जाने के कारण 'अधिप' मर्मस्थल (शिखा स्थान) की त्वचा कठोर हो जाती है, शिखाजन्य लाभ भी पचहत्तर वर्ष तक प्राप्त होकर सारे शरीर में व्याप्त हो जाते हैं। तब शिखा छोड़ने पर भी कोई हानि नहीं होती; तब कर्मकाण्ड तथा उपासना कांड के समाप्त हो जाने से तत्सम्बद्ध शिखा-सूत्र का त्याग ठीक भी है।
शिखा के विषय में कई एक विद्वान् अन्य उपपत्तियाँ भी देते हैं। सारी सृष्टि का मूल अग्नि ही है; अग्नि का स्वरूप उसकी शिखा से व्यक्त होता है। अग्नि को संस्कृत में 'शिखी' कहा जाता है। अग्नि यदि शिखा रहित हो तो उसमें हवन निषिद्ध माना गया है।
जब वह शिखी होता है, तब किसी की शक्ति नहीं कि उसका स्पर्श कर सके। उसके उस स्वरूप (शिखित्व) के नष्ट होने पर तो भस्म भी उसे आच्छन्न कर दिया करती है। हम सब अग्नि के उपासक हैं, अग्नि से ही उत्पन्न हैं। अग्नि से ही हम 'तन्वं मे पाहि' 'तया मामद्य मेधयाग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा' आदि प्रार्थनाएँ करते हैं।
जो जिसकी उपासना करता है, अंत में वह उसके स्वरूप को प्राप्त होता है। उपासक भी ऐसा चाहता है। तभी वह उपास्य के स्वरूप की प्राप्ति के लिये उपास्य के ही चिन्ह धारण करता है- जैसे शैव भस्म - रुद्राक्ष माला आदि को, वैष्णव तुलसी माला आदि को।
इसलिये शुक्ल यजुर्वेद के 'शतपथ ब्राह्मण' में आया है- 'देवो भूत्वा देवानेति' इसी प्रकार तीनों आश्रमों में अग्नि के उपासक हम लोग भी अग्नि का चिह्न 'शिखा' रखते हैं। संन्यास में अग्नि का त्याग होने से उसके चिह्न शिखा का भी त्याग कहा है। अग्नि सेवन (यज्ञ) तथा उसके अधिकार पट्ट 'यज्ञोपवीत' का भी त्याग कहा है। इस प्रकार की स्थिति में उसका अग्निमय संसार से भी सम्बन्ध न रहने से मृत्युसमय में संन्यासी को अग्नि से नहीं जलाया जाता।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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