धर्म शास्त्रों में फिजिकल बॉडी क्या है?
स्थूल शरीर ( देह )
त्वङ्मांसरुधिरस्नायुमेदोमज्जास्थिसंकुलम् ।
पूर्णं मूत्रपुरीषाभ्यां स्थूलं निन्द्यमिदं वपुः ॥
अर्थात् 'त्वचा (चर्म), मांस, रक्त, स्नायु (नसें), मेदा (चर्बी), मज्जा और हड्डियों का समूह तथा मल मूत्र से पूर्ण (भरा हुआ) स्थूलदेह कहलाता है।' यह अन्य देहों की अपेक्षा निन्दनीय है। यह शरीर आत्मा का स्थूल भोगा यतन (भोग का घर) है। इसकी अवस्था जाग्रत है। इस अवस्था में ही स्थूल पदार्थों का अनुभव किया जाता है। अत एव जाग्रदवस्था में स्थूल देह की प्रधानता है। स्थूलदेह का अभिमानी जीव 'विश्व पुरुष' कहलाता है।
सूक्ष्म शरीर:
वागादिपञ्च श्रवणादिपञ्च प्राणादिपञ्चाभ्रमुखानि पञ्च ।
बुद्ध्याद्यविद्यापि च कामकर्मणी पुर्यष्टकं सूक्ष्मशरीरमाहुः ॥
'वाणी आदि पाँच कर्मेन्द्रियाँ, श्रवण आदि पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, प्राणापानादि पाँच प्राण, आकाशादि पञ्चभूत, बुद्धि, मन आदि अन्तःकरण (भीतर की इन्द्रियाँ - मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार), अविद्या, काम और कर्म यह पुर्यष्टक सूक्ष्म शरीर कहलाता है।' इस सूक्ष्म शरीर को लिङ्ग- शरीर भी कहते हैं। यह अपञ्चीकृत भूतों से उत्पन्न हुआ है। यह वासनायुक्त होने से कर्म फलों का अनुभव कराने वाला है।
अपने स्वरूप का यथार्थ ज्ञान न होने के कारण यह आत्मा की अनादि उपाधि है। स्वप्न इसकी अभिव्यक्ति अवस्था है। इस अवस्था में यह स्वयं बचा हुआ भासता है। बुद्धि इसकी उपाधि है। यह लिङ्ग-देह (शरीर) चिदात्मा पुरुषके सम्पूर्ण व्यापारों का कारण है। स्वप्नदशापन्न (स्वप्नावस्था को प्राप्त) सूक्ष्मशरीर के व्यष्ट्यभिमानी जीव की संज्ञा 'तैजस पुरुष' है।
कारण शरीर:
अव्यक्तमेतत्त्रिगुणैर्निरुक्तं तत्कारणं सुषुप्तिरेतस्य नाम शरीरमात्मनः ।
प्रलीनसर्वेन्द्रियबुद्धिवृत्तिः विभक्तयवस्था ।।
रजोगुण की विक्षेप शक्ति क्रिया रूपिणी है। इसी से समस्त क्रियाएं होती हैं और इसी से मानसिक विकार (सुख-दुःखादि) उत्पन्न होते हैं। इसी के कारण ही जीव नाना प्रकार के कर्मों में प्रवृत्त होता है। रजोगुण ही जीव के बन्धन का कारण है।
तमोगुण की आवरण-शक्ति से वस्तु कुछ-की-कुछ प्रतीत होती है। यही पुरुष के (जन्म-मरण रूप) संसार का कारण है। अज्ञान, आलस्य, जडता, निद्रा आदि के गुण I
यद्यपि सत्त्वगुण जल के समान शुद्ध है, तथापि रज और तम से मिलने पर वह भी (सत्त्वगुण) संसार बंधन का कारण होता है। यम-नियमादि श्रद्धा, भक्ति, मुमुक्षुता और दैवी सम्पद्- ये 'मिश्र सत्त्वगुण' के धर्म हैं। प्रसन्नता, आत्मानुभव, परम शान्ति, आत्यन्तिक आनन्द और परमात्मा में स्थिति- ये 'विशुद्ध सत्त्वगुण' के धर्म हैं। एवं उक्त तीनों गुणों के निरूपण से अव्यक्त का वर्णन किया गया है।
यही आत्मा का 'कारण-शरीर' है। इसकी अभिव्यक्ति सुषुप्ति अवस्था में होती है। सुषुप्तावस्था में बुद्धि की सम्पूर्ण वृत्तियाँ लीन हो जाती हैं। अर्थात सब प्रकार का ज्ञान शांत हो जाता है और बुद्धि बीज रुपये ही स्थिर रहती है। व्यष्ट्यभिमानी जीव (सुप्त) की कारण-शरीर के संज्ञा 'प्राज्ञ पुरुष' है।
महाकारण शरीर:
तुरीया दशा को प्राप्त जीव की उपाधि को 'महाकारण शरीर' कहते हैं। उपर्युक्त जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं का तथा इन अवस्थाओं के भोक्ताओं के ज्ञान पूर्वक विवेचन से उत्पन्न शुद्ध विद्या के उदय का (ज्ञान का) चमत्कार ही 'तुरीयावस्था' है ।
यदुक्तं स्पंदशास्त्र –
एतदवस्थात्रयस्य तद्भोक्तॄणां च विविच्य ज्ञानजन्यशुद्धविद्योदयाख्यश्चमत्कारस्तुर्यावस्था ।
तथा हि त्रिषु धामसु यद्भोग्यं भोक्ता यश्च प्रकीर्तितः ।
विद्यात्तदुभयं यस्तु स भुञ्जानो न लिप्यते ॥
इति वरदराजोऽप्याह तुर्यं नाम परं धाम तदाभोगश्चमत्क्रिया ।
भेदेऽपि जाग्रद्रादीनां योगिनस्तस्य सम्भवः ॥
अर्थात 'तुर्य (तुरीयावस्था) उस महाशक्ति का परधाम है। उसका आभोग (परमानंद का अनुभव) ही चमत्कार है। जाग्रत-स्वप्न आदि अवस्थाओं के भेद होने पर भी योगी पुरुष को तुरीयावस्था का आनन्द का अनुभव होता रहता है।'
'जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति भेदेऽपि तुर्याभोग सम्भवः ।'
अर्थात 'जाग्रदादि अवस्थाओं में भेद होने पर भी तुर्या का भोग (तुरीयावस्था का आनन्द अनुभव) अवश्य होता है।'
"त्रिषु चतुर्थं तैलवदासेच्यम् ।' अर्थात ‘तीनों अवस्थाओं के रहते हुए भी चतुर्थी | तुर्यावस्था का आनन्द उनके ऊपर ऐसा रहता है जैसे पानी के ऊपर तैल बिन्दु ऊपर ही तैरता रहता है और पानी का उसके ऊपर कुछ भी असर (प्रभाव) नहीं होता है।'
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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