Published By:धर्म पुराण डेस्क

ह्रदय रोग क्या है, हार्ट डिजीज और आयुर्वेद हृदय रोग का घरेलू उपचार प्रयोग पर काबू कैसे पाएं हृदय रोग से कैसे बचे…

हृदय रोग:

दिल का दौरा पड़ना ही हृदय रोग है। हृदय रोग (Heart Disease) एक घातक रोग है, जो आज व्यापक रूप में फैलता जा रहा है। इस रोग से बचने के लिए कुछ विशेष उपाय इस संदर्भ में प्रस्तुत किये जा रहे हैं।

हमारा हृदय मांसपेशियों से निर्मित एक खोखला यंत्र है। हृदय का अधिकांश भाग वक्ष के वाम भाग में अवस्थित रहता है। हृदय रस का स्थान है अतः दूषित रस के सम्पर्क से हृदय या उसके अवयवों में विकृति होने से हृदय में रोग उत्पन्न होते हैं। 

शरीर के दूषित रक्त को लेकर फेफड़े में भेजना तथा वहाँ शोधित रक्त को फिर शरीर में सर्वत्र प्रेषित करना हृदय का कार्य है। इस यंत्र में विकृति से उत्पन्न होने को ही हृदय रोग कहा जाता है। 

हमारे शरीर के अन्य यंत्रों के समान हार्ट की मांसपेशियां भी शरीर के रक्त स्रोत से ही पुष्टि प्राप्त करती हैं। किसी कारण से जब वह रक्त-स्रोत दूषित हो जाता है, तब हार्ट भी रोगग्रस्त बन जाता है। सामान्य रूप से इसे हृदय रोग कहते हैं।

आचार्य सुश्रुत का कहना है..

दूषयित्वा रसं दोषा विगुणा हृदयं गताः ।

कुर्वन्ति हृदये बाधां हृद्रोगं तं प्रचक्षते ॥

अर्थात अपने कारणों से कुपित हुए वात आदि दोष रस को दूषित करके (उसके आधार) हृदय में उपस्थित होकर हृदय में विकार उत्पन्न कर देते हैं, इसे हृदय रोग कहते हैं। 

हृदय रोग होने के अनेक कारण..

हृदय रोग कई कारणों से होता है, जैसे बिल्कुल परिश्रम न करना, मशीन की तरह अत्यधिक परिश्रम करना, अधिक मात्रा में तीक्ष्ण भोजन करना, शक्ति से अधिक दौड़ना तथा भय, चिन्ता, त्रास, विवेचन, अधिक वमन, अधिक मद्यपान एवं धूम्रपान करना, हृदय में चोट लगना एवं सब समय मानसिक तनाव में रहना आदि। इनके अतिरिक्त जब हमारे शरीर के भीतर अत्यधिक दूषित पदार्थों का संचय हो जाता है और उनके द्वारा हृदय आक्रान्त हो जाता है, तब हृदय रोग उत्पन्न हो जाता है।

हृदय रोग के लक्षण..

चरक संहिता में तीन प्रकार का हृदय रोग बताया गया है- वातज, पित्तज और कफज इन तीनों का पृथक्-पृथक् लक्षण भी बताया गया है। इसका वर्णन आगे किया जा रहा है

(1) वातज हृदय रोग का लक्षण- वायु से होने वाले हृदय रोग में विशेषकर हृदय में शून्यता का हो जाना, द्रवता तथा शुष्कता आदि का अनुभव होना, हृदय में पीडा का होना, स्तम्भ और मोह का अनुभव होना वातज हृदय रोग का लक्षण है।

(2) पित्तज हृदय रोग का लक्षण- पित्तजन्य होने वाले हृदय रोग में आँखों के सामने अंधेरा छा जाना, शरीर में दाह का अनुभव होना- विशेषकर हृदय में। मोह, त्रास तथा ताप की वृद्धि, ज्वर होना और शरीर पीला पड़ जाना आदि इसके लक्षण हैं।

(3) कफज हृदय रोग का लक्षण- कफ से होने वाले हृदय रोग में हृदय जकड़ा हुआ-सा, भारी तथा स्तिमित प्रतीत होता है। कंठ की नली में कफ का जमा होना तथा ज्वर, कास और तन्द्रा आदि का होना इसका लक्षण है।

यदि उक्त सभी लक्षण एक साथ पाये जाते हो तो उसे 'सन्निपातज हृदय रोग' कहा जाता है और यदि हृदय-हृदय रोग में कण्डू और तीव्र वेदना हो तो उसे 'कृमिजन्य हृद्रोग' कहा जाता है।

हृदय रोग निवारण..

चरक ने हृदय रोग निवारण के लिये पूर्वकथित वातज, पित्तज और कफज- इन तीनों के पृथक्-पृथक् औषधि प्रयोग का विधान बताया है। केवल इतना ही नहीं, अपितु एक-एक रोग की अनेकों औषधियां बतायी हैं। परंतु इस प्रसंग में सबसे सरल और एक-एक औषधि का प्रयोग ही बताया जा रहा है|

(1) वातज हृदय रोग का निवारण- पुष्कर-मूल, बिजौरा नींबू का मूल, सोंठ, कचूर तथा हरड़-इन पाँचों द्रव्यों को समान भाग में लेकर कल्क बनाये। उस कल्क में यवक्षार-जल या खट्टे अनार का रस, गोघृत और सेंधा नमक मिलाकर पिलाना चाहिये। इससे वातज हृदय रोग तथा विकर्तिक रोग दूर होते हैं।

(2) पित्तज हृदय रोग का निवारण- कशेरू, सेवार, अदरक, पुण्डरिया-काठ, मुलेठी, कमल-डंडी की गाँठ-इन द्रव्यों का सम्मिलित कल्क, गोदुग्ध और घृत को एक में मिलाकर पाक करे और मधु के साथ इस कशेरुकादि घृत का सेवन करने से पित्तज हृदय रोग नष्ट हो जाता है?

(3) कफज हृदय रोग का निवारण- इस रोग के निवारण के लिये शिलाजीत का प्रयोग किया जाता है। परंतु शिलाजीत की सेवन-विधि 'चरक संहिता' के रसायन कल्प में कथित नियम के अनुसार ही होनी चाहिये। क्योंकि ताम्र शिलाजीत ही कफज हृदय रोग में लाभकारी होता है। 

इसके अतिरिक्त च्यवनप्राश, अगस्त्य हरीतकी लेह, ब्राह्मी रसायन और आमलकी रसायन जो अच्छे वैद्य के द्वारा निर्मित हो, इसका सेवन करना चाहिये। इससे कफज तथा अन्य हृदय रोग के समूल नष्ट हो जाते हैं।

परंतु ऐसा भी देखा गया है कि हार्ट पर प्रभाव विस्तार के लिये यौगिक आसन से बढ़कर ऐसा कोई दूसरा उपाय नहीं है। अतः किसी दक्ष योगी से हृदय रोग संबंधी यौगिक आसनों को विधिपूर्वक सीख लेना चाहिये। परंतु यौगिक आसन स्वस्थ दशा में ही करना चाहिये। रोग की प्रबल अवस्था में नहीं; क्योंकि रोग की उस अवस्था में तो विश्राम ही एकमात्र उपाय है। 

स्वस्थ अवस्था में हलका-हलका यौगिक आसन तथा सायं प्रातः भ्रमण इस रोग के रोगी के लिये अनुकूल रहता है। इससे हार्ट क्रमशः सबल होता जाता है और उसका नया गठन होता है। रोगी अपने को स्वस्थ अनुभव करने लगता है। कभी-कभी जलवायु का परिवर्तन करना भी इस रोग के रोगी के लिये हितकर होता है। पर तीन हजार फीट से अधिक ऊंचाई वाले स्थान रोगी के लिये अनुकूल नहीं हैं; क्योंकि इससे श्वास फूलने लगता है और श्वास लेने में कष्ट होता है। 

हृदय रोग के रोगी को अपना मानसिक संतुलन बनाये रखना चाहिए और धैर्य, शान्ति तथा आत्मविश्वास को भी सतत बनाए रखना चाहिये। इससे हृदय रोग से छुटकारा मिल जाता है।


 

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