हेपेटाइटिस के चिन्ह एवं लक्षण-
हेपेटाइटिस के आरंभ में कोई विशेष लक्षण दिखाई नहीं देता है। सामान्य रूप से इस रोग की पहचान भूख की कमी एवं कमजोरी से होती है। कुछ दिनों के पश्चात ये लक्षण मुख्यतः उल्टी, बुखार, शरीर और सिरदर्द में परिवर्तित हो जाते हैं। इस अवस्था में रोगी को अत्यधिक कमजोरी महसूस होती है और उसका मूत्र गाढ़ा, पीला या नारंगी रंग का हो जाता है।
यकृत बहुत बड़ा हो जाता है और दाहिनी पसलियों के नीचे दर्द होता है व अंत में व्यक्ति को पांडु रोग हो जाता है। इस रोग में सबसे पहले आँख का सफेद भाग और श्लेष्मा झिल्ली पीले हो जाते हैं। इसके बाद संपूर्ण त्वचा पीली पड़ जाती है।
पांडु रोग होने का तात्पर्य है कि यकृत रक्त से दूषित पदार्थ को साफ करने में समर्थ नहीं है। इन पदार्थों की अधिकता से संपूर्ण शरीर की कोशिकाओं के रंग पीले पड़ जाते हैं। अतः सारा शरीर तनावपूर्ण हो जाता है और उसमें खुजली होती है।
हेपेटाइटिस का कारण-
इस रोग के कई कारण हैं। इन सबमें प्रमुख कारण है वायरस या इन्फेक्शन। वायरस में हेपेटाइटिस ए और बी होते हैं। दूसरा कारण रसायन एवं दवाएँ हैं। हेपेटाइटिस-ए को इन्फेक्टिव हेपेटाइटिस कहते हैं। यह दूषित जल, पदार्थ और रोगी के संपर्क द्वारा फैलता है।
यह साधारण रूप से स्कूल, कॉलेज, हॉस्टल और संस्थाओं में पाया जाता है। 'हेपेटाइटिस बी' को वायरल हेपेटाइटिस भी कहते हैं। यह वायरस लार, रक्त तथा शरीर के स्रावों में रहता है तथा उसके रक्त में प्रवेश के कारण ही इस रोग के होने की संभावनाएं होती हैं। यह अधिक खतरनाक होता है।
दवाओं में मादक द्रव्य, स्टेरॉयड एजेंट, गर्भ निरोधक और एंटीबायोटिक दवाएँ प्रमुख हैं, जो इस रोग के प्रमुख कारणों में हैं। इनसे शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली प्रभावित होती है।
हेपेटाइटिस का प्रबंध और रोग का निदान-
हेपेटाइटिस के 95% रोगी छह सप्ताह में ठीक हो जाते हैं. परंतु इसके रोगी को विषाक्त पदार्थों से बचना चाहिए। यदि इस रोग का पुनरागमन हो जाए तो यकृत अपना बंद कर सकता है। इससे विषाक्त द्रव्य रक्त से नहीं छनने से मानसिक संतुलन बिगड़ कर हिपेटिक कोमा हो जाता है। इस प्रकार अंततोगत्वा रोगी की मृत्यु हो जाती है।
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