कालसर्प योग की चर्चा हम बहुत सुनते हैं लेकिन क्या कालसर्प योग का वास्तव में अस्तित्व होता है आखिर यह कालसर्प योग क्या है, कालसर्प योग क्यों पैदा होता है।
अब कालसर्प योग पर विचार करें तो ज्योतिष के प्राचीन ग्रंथों में कालसर्प योग का तो उल्लेख नहीं मिलता, सर्प योग का तो उल्लेख मिलता है, परन्तु इससे यह नहीं माना जा सकता कि कालसर्प योग का अस्तित्व नहीं है।
जैसे प्राचीन चरक संहिता में कैंसर एवं एड्स जैसे रोगों का उल्लेख नहीं है, परन्तु ये रोग नहीं हैं, ऐसा नहीं माना जा सकता क्योंकि वर्तमान में रोगों की प्रामाणिकता होती है। इसी प्रकार कालसर्प योग में जब सभी सात ग्रह राहु या केतु या केतु और राहु में मध्य आ जाते हैं, तो राहु के प्रभाव से अन्य ग्रह निष्प्रभावी हो जाते है और राहु का ही प्रभाव आता है, लेकिन यदि राहु-केतु के साथ उसी भाव में अन्य ग्रह होते हैं, तो यदि उस ग्रह के अंश राहु के अंश से कम हुए, तो कालसर्प योग का प्रभाव पूर्ण रहेगा, लेकिन साथ वाले ग्रह के अंश यदि अधिक हुए तो वह ग्रह इस दोष से मुक्त होगा और राहु का प्रभाव उस पर नहीं होगा।
राहु-केतु की गति अन्य ग्रहों के विपरीत दिशा में होती है। इसे वक्र गति कहते हैं और राहु केतु अपनी राशि से पीछे की ओर चलता है। जैसे यदि कर्क इस राशि में है तो मिथुन राशि की ओर चलेगा। इसलिये राहु के पीछे भी और केतु तक सभी ग्रह आ जाते हैं, तो जो कालसर्प योग बनता है. वह काल सर्प योग दोषपूर्ण होता है, और उसे कालसर्प दोष कहते हैं|
परन्तु केतु के पीछे की ओर राहु तक, जब सभी ग्रह आते है, तो वह काल सर्प योग दोष पूर्ण नहीं होता, बल्कि योग कारक बनता है। इसलिये मेरे स्वयं के अनुभव एवं विचार से कालसर्प दोष और कालसर्प योग दोनों अलग अलग होते हैं। क्योंकि पूर्व में लिखा जा चुका है कि राहु स्वयं सम्बन्धित ग्रह से कार्य करवाता है और केतु सम्बन्धित ग्रह को निर्देश देता है।
कालसर्प योग की वैज्ञानिक आधार पर यह धारणा बनती है कि राहु एवं केतु प्रभाव के दो सिरे हैं और जब अन्य ग्रह भ्रमण करते हुये इनके चुंबकीय कक्षा में आ जाते हैं, तो यह सभी ग्रह निष्प्रभावी होकर राहु और केतु के गुण दोषों से प्रभावित हो जाते हैं।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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