” श्री कृष्ण बोले, “हे निष्पाप! इस संसार में दो प्रकार की निष्ठाएं हैं, एक तो है ज्ञान जिसे सांख्य योग करते हैं और दूसरा है कर्म जिसे कर्म योगी करते हैं। प्रत्येक मनुष्य के लिये ये दोनों अत्यावश्यक हैं। मनुष्य कर्म किये बिना कभी रह नहीं सकता, बिना कर्म के तो वह न तो सांख्य योग को प्राप्त होता है और न ही कर्म योग को। इन्द्रियों के राजा मन ही मनुष्य को कर्म करने के लिये बाध्य करती है। मनुष्य अपने कर्मों की जानकारी नहीं रख पाता किंतु मैं घट-घट वासी होने के नाते उसके कर्मों को जानता हूँ। हे अर्जुन! जो मनुष्य केवल इन्द्रियों से प्रभावित होकर कर्म करता है वह मिथ्याचारी कहलाता है किन्तु जो मनुष्य इन्द्रियों को अपने वश में रखकर कर्मों में आसक्त होता है वही श्रेष्ठ है। इन्द्रियों को वश में रखकर केवल मन के अनुसार कर्म करने वाले कर्मयोगी कभी कर्म बन्धन मेँ नहीं बाँधते। अतः हे पार्थ! तू आसक्तिरहित होकर कर्म कर। इस प्रकार कर्म करने पर तुझे तेरे कर्मों का अच्छा ही फल प्राप्त होगा। जनक आदि ज्ञानी जन भी आसक्तिरहित कर्म करके ही परम सिद्धि को प्राप्त हुये थे।
“हे अर्जुन! इस संसार में कोई भी प्राप्त करने लायक वस्तु मुझे अप्राप्त नहीं है फिर भी मैं कर्म करते रहता हूँ। यदि मैं स्वयं इन्द्रियों से आसक्त होकर कर्म करूँगा तो बड़ी क्षति हो जायेगी। अज्ञानी मनुष्य इन्द्रियों से आसक्त होकर कर्म करते हैं किन्तु ज्ञानी जन संसार की भलाई का ध्यान रखते हुये अनास्क्तिपूर्वक कर्म करते हैं।”
यह सुनकर अर्जुन ने पूछा, “हे माधव! मनुष्य न चाहता हुआ भी पाप कर्म किसकी प्रेरणा से करता है?” भगवान श्री कृष्ण बोले, “हे पार्थ! संसार में तीन प्रकार के गुण होते हैं – सत, रज और तम। जब मनुष्य सत गुन के अनुसार कर्म करता है तो उसके कर्म श्रेष्ठ होते हैं। रजोगुण के अनुसार किये गये कर्म उत्तम तथा निकृष्ट दोनों ही प्रकार के होते हैं। किन्तु तमोगुण के अनुसार किया गया कर्म सदैव निकृष्ट तथा प्रयुक्त होता है।”
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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