Published By:दिनेश मालवीय

ज्ञान और अज्ञान क्या है, भारतीय धर्म-दर्शन की गूढ़ अवधारणा -दिनेश मालवीय

हमेशा की तरह, आज भी हम अपने इस एपिसोड में भारत की महान ज्ञान-परम्परा से जुड़ा एक बहुत महत्वपूर्ण विषय लेकर उपस्थित हुए हैं. ज्ञान और अज्ञान. इन दो शब्दों से हम खूब परिचित हैं. दुनिया भर में ये दो शब्द किसी न किसी रूप में प्रचलित हैं. हर भाषा में इनके लिए कोई शब्द है. शाब्दिक अर्थ के अनुसार, आमतौर पर यही समझा जाता है, कि जो शिक्षित है, वह ज्ञानी है और जिसने शिक्षा प्राप्त नहीं की वह अज्ञानी है. अधिकतर शिक्षा भी उसे ही माना जाता ही, जो हम शैक्षणिक संस्थाओं में प्राप्त करते हैं. इसीके आधार पर हम किसी व्यक्ति के ज्ञानवान या अज्ञानी होने का फैसला करते हैं.

लेकिन भारतीय जीवन -दर्शन में ज्ञान और अज्ञान या विद्या और अविद्या की की बहुत अलग और अद्भुत अवधारणा. इसके अनुसार, जो व्यक्ति स्वयं को शरीर मानता है, वह अज्ञानी है और जिसने इस शरीर के भीतर मौजूद परमतत्व को जान-समझ और अनुभव कर लिया वह ज्ञानी है. इसमें किताबी ज्ञान का होना बिल्कुल आवश्यक नहीं है. कोई निरक्षर व्यक्ति भी ज्ञानी हो सकता है और कोई बहुत शिक्षित व्यक्ति भी अज्ञानी हो सकता है.

हालाकि यह विषय इतना सूक्ष्म और गूढ़ है, कि शब्दों में इसे समझना या समझाना असंभव है, लेकिन हमारे ऋषि-मुनियों ने विभिन्न तरीकों से स्वयं समझकर इसे समझाने की कोशिश की है. इसे कहीं गुरु-शिष्य संवाद के रूप में, कहीं श्लोकों और स्तुतियों के रूप में तो कहीं रूपकों, तो कहीं कथाओं के रूप में इसे बताया गया है. विषय के अनुरूप बहुत सुंदर और रोचक अच्छे उदाहरण भी दिए गये हैं. ज्ञान के विषय को अधिकतर प्रश्नोत्तर शैली में ही समझाया गया है, जिसे अंग्रेज़ी में dilectic method कहा जाता है. इसमें शिष्य या कोई जिज्ञासु प्रश्न करता है, और ज्ञानी गुरु उसका उत्तर देता है.

ऋषि कहते हैं कि हम सोते हैं और सपने देखते हैं. सुबह उठकर हम कहते हैं, कि आज हमें अच्छी नींद आयी. हमें ऐसा सपना आया. हमने सपने में यह देखा. सवाल उठता है, कि जब आप सो रहे थे तो सपने कौन देख रहा था? फिर, हमने सपना देखा, यह कौन बता रहा है? बोल कौन रहा है? इसका अर्थ यह हुआ, कि जब हम सो रहे होते हैं, तो आपके भीतर कोई जागता है. ऋषियों के अनुसार यह जो देखने वाला है, वही आप हैं. इस तथ्य को जो समझ लेता है, वह ज्ञानी है.  

इसके अलावा और भी उदाहरण दिए गये हैं. अपने हाथ को आप मेरे हाथ, पैरों को मेरे पैर, आँखों को मेरी आँखें और शरीर के अन्य अंगों को आप कहते हैं कि “यह मेरे है”. यानी ये अंग आप नहीं हैं. आप इनसे अलग कुछ और हैं. इस “और” के कारण ही ये सारे अंग क्रियाशील हैं. इसके शरीर से बाहर आते ही ये सभी अंग एकदम निष्क्रिय हो जाएँगे. आप कहते हो, कि फलां मुझसे बहुत प्रेम करता है. लेकिन वह जिससे प्रेम करता है, वह आपके अंग नहीं, बल्कि आप हैं, जो इन अंगों से अलग है.

भारतीय दर्शन कहता है, कि जिस व्यक्ति ने स्वयं को अपने शरीर से अलग जान लिया, वही ज्ञानी है. जो आत्म-स्वरूप को पहचान गया. जो आत्मभाव में जीने लगा, जो आत्मवान हो गया, वह ज्ञानी है. जो यह नहीं जान सका और देह-भाव में जी रहा है, वह अज्ञानी है. ज्ञानी-अज्ञानी की इसी अवधारणा को भारतीय दर्शन के परमग्रंथों उपनिषदों और भगवतगीता में व्याख्यायित किया गया है. शास्त्रों में देह-भाव में जीने को बहुत बुरा माना गया है. तात्विक अर्थों में देहभाव में जीने वाला शूद्र और आत्मभाव में जीने वाला ब्राह्मण है.

इस अवधारणा में सबसे महत्वपूर्ण बात  हाय है, कि इसमें बात पर विशेष ध्यान दिया गया है, कि आत्मतत्व को जानने के लिए संसार से भागने की बिल्कुल जरूरत नहीं है. इसे संसार में रहकर और अपने पारिवारिक-सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करते हुए जाना जा सकता है. संन्यास का प्रावधान है, लेकिन यह बहुत ऊँची और गहन अवधारणा है. संसार से भाग जाना संन्यास नहीं है. जगत को दृश्य की तरह देखते-समझते और इसमें रहकर भी निर्लिप्त रहने का उपदेश दिया गया है. सन्यास चेतना की बहुत ऊँची अवस्था होने पर ही ग्रहण किया जाता है. जब मन के संस्कार बीज रूप से नष्ट हो जाते हैं, तब संन्यास लिया जाता है. लेकिन संस्कारों के बीज रूप में जल जाने के बाद कोई संन्यास न भी लें तो वह सन्यासी ही है.

आत्मतत्व का शोध और अनुभव करने के लिए ही विभिन्न विधियाँ खोजी गयीं हैं. इनमे ध्यान, योग, प्राणायाम, जप, चिन्तन, तंत्र, पूजा-आराधना सहित बड़ी संख्या में अन्य विधियाँ शामिल हैं. कोई एक विधि सबके लिए निर्धारित नहीं है. अपने स्वभाव और मन की अनुकूलता के अनुसार कोई किसी भी विधि का चयन कर आत्मतत्व की साधना में आगे बढ़ सकता है. प्रश्न विधि का है ही नहीं. मूल बात है अनुभूति.इस देश में बस ज्ञान और अज्ञान या विद्या और अविद्या की इतनी ही अवधारणा है. कोई हज़ारों किताबें पढ़ा हुआ हो, लेकिन उसे आत्मतत्व का अनुभव नहीं हुआ हो, तो उसे यह देश ज्ञानी नहीं मानता. इसी तरह यदि किसीने कुछ भी न पढ़ा हो लेकिन आत्मतत्व को अनुभव कर लिया हो तो उसे ज्ञानी माना जाता है. 

 

 

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