ध्यान मन की बहुत बड़ी शक्ति है, इसे जहां लगा दिया जाए उसी का ज्ञान होने लगता है। ध्यान अपने भीतर लगाया जाए तो भीतर के रहस्य खुलने लग जाते हैं। कान बंद कर भीतर की आवाज सुनते रहने से शरीर के अंदर का अनहद नाद सुनाई पड़ता है। आंख बंद कर ज्योति की कल्पना करते रहने से ज्योति दिखलाई पड़ती है।
कुछ को ध्यान करते रहने से शरीर के अंदर की कुंडलिनी शक्ति के जागरण की अनुभूतियां हुई हैं। किसी स्वरूप के ध्यान तथा मंत्र के जाप से मन एकाग्र होता है। ध्यान में मंत्र जाप करते रहने से बाद में जाप अपने आप होने लगता है। यह जाप ही अजपा जाप कहा जाता है।
एकाग्रता यदि स्वरूप के संबंध में होती है तो उसका स्थान हृदय होता है। आंखें बंद कर स्वरूप का ध्यान करते रहने पर स्वरूप दिखाई देने लगता है। एकाग्रता यदि विचार की होती है तो उसका स्थान मस्तिष्क होता है। हम अपने ध्यान में अपने हृदय में जिस स्वरूप को धारण करते हैं तथा ऐसा बार-बार करते रहने पर उसकी शक्ति का हमें अनुभव होने लगता है।
ध्यान की शक्ति हमें, जिसका ध्यान करते हैं उसी दिशा में ले जाती है। यह मार्ग काफी खतरे का भी हो सकता है क्योंकि सभी के लिए गुरु का सामीप्य होना संभव नहीं। यही कारण है कि बहुत से ध्यानी, सनकी अथवा विक्षिप्त होते देखे गए हैं।
ध्यान किसका करें यह महत्वपूर्ण है। क्या आसुरी शक्तियों का? क्या माया के देवताओं का? क्या माता दुर्गा का? अथवा पूर्ण ब्रह्म परमात्मा का? इसलिए ध्यान करने वाले को ज्ञान की आवश्यकता होती है तथा इसके लिए समर्थ गुरु की आवश्यकता है।
ध्यान में शरीर से अलग होकर कौन जाता है ? किसी भी वस्तु का अनुभव शरीर की ज्ञानेंद्रियां करती है और इन सभी ज्ञानेंद्रियों का राजा मन है। गीता में मन को भी छठी इंद्री बताया गया है। मन जिसको चाहता है इंद्रिया उसी को ग्रहण करती हैं। अतः ज्ञानेन्द्रियों का संबंध मन से होता है। मन जो अनुभव करता है वह अपनी बुद्धि के अंदर रखता है। अतः मन का संबंध बुद्धि से भी होता है।
यदि किसी मानव जीव की बुद्धि तथा उसका मन स्वस्थ नहीं हो अर्थात् विक्षिप्त हो तब वह ध्यान नहीं लगा सकता है। मन का संबंध चित्त की वृतियों से भी है क्योंकि इन वृत्तियों से विचार उत्पन्न होते हैं। इन विचारों से ही इच्छा का निर्माण होता है। अतः इच्छा के बिना मन ध्यान नहीं लगा सकता है।
ध्यान किसका किया जाए, इसका संबंध है इच्छा से होता है। इच्छा में जो विचार उत्पन्न होते हैं उसका संबंध तीन गुणों से होता है। स्वच्छ विचारों की उत्पत्ति सतोगुण से तथा आसुरी विचारों की उत्पत्ति तमोगुण से होती है।
यदि हमें सतोगुण के विचारों से संबंधित ध्यान लगाना है तो हमें अपनी कुंडलिनी जाग्रत करनी होगी क्योंकि बिना कुंडलिनी जाग्रत किये मन को एकाग्र करना संभव नहीं है।
अतः बिना अपने सतोगुण को उन्नत किए ध्यान में सफलता प्राप्त नहीं हो सकती है। यदि हमें शून्य रूपी नींद के बाहर, परमात्मा का ध्यान लगाना है तो हमें अपनी आत्मा को जाग्रत करना होगा और मन का संबंध आत्मा से जोड़ना होगा। यह ध्यान की सबसे उत्तम स्थिति है।
बजरंग लाल शर्मा
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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