Published By:धर्म पुराण डेस्क

क्या है सर्वसमर्थ बल, जानें आत्मबल

मनुष्य केवल एक शरीर-मात्र ही नहीं है, उसमें एक परम तेजस्वी आत्मा भी सर्वोपरि सर्वसमर्थ बल का नाम है- आत्मबल। आत्मबल के अभाव में सारी भौतिक उपलब्धियों तथा सामर्थ्य केवल भार बन कर रह जाता है। केवल बलवान होना ही काफी नहीं, बल का सही दिशा में सदुपयोग होना ही वह कौशल है, जिसके आधार पर समर्थता का लाभ उठाया जाता है 

अपव्यय तथा दुरुपयोग से तो बहुमूल्य साधन भी निरर्थक ही नहीं हानिकारक तक बन जाते हैं। अतएव धन, बुद्धि, स्वास्थ्य आदि शक्तियों के ऊपर नियंत्रण करने और उन्हें सही दिशा में प्रयुक्त करने वाली एक केन्द्रीय समर्थता भी होनी चाहिए। कहना न होगा कि इस समर्थता का नाम आत्मबल है।

हमें जानना चाहिए कि मनुष्य केवल एक शरीर-मात्र ही नहीं है, उसमें एक परम तेजस्वी आत्मा भी विद्यमान है। हमें जानना चाहिए कि मनुष्य केवल धन, बुद्धि, और स्वास्थ्य के भौतिक बलों से ही सांसारिक सुख, सम्पदा, समृद्धि एवं प्रगति प्राप्त नहीं कर सकता, उसे आत्मबल की भी आवश्यकता है। 

आत्मा के अभाव में शरीर की कीमत निर्मूल्य हो जाती है। इसी प्रकार आत्मबल के अभाव में शरीर बल मात्र खिलवाड़ बन कर रह जाता है। वह किसी के पास कितनी बड़ी मात्रा में क्यों न हो, उससे सुखानुभूति नहीं मिल सकती। वे केवल भार, तनाव, चिंता एवं उद्वेग का कारण बनेंगे और कहीं उनका दुरुपयोग लगा तो वे सर्वनाश की भूमिका ही लाकर ही खड़ी कर देंगे। 

आदर्शों और सिद्धांतों पर अड़े रहने, किसी भी प्रलोभन और कष्ट के दबाव में कुमार्ग पर पग न बढ़ाने, अपने आत्मगौरव के अनुरूप सोचने-करने, दूरवर्ती भविष्य के निर्माण के लिए आज की असुविधाओं को धैर्य और प्रसन्न-चित्त से सह सकने की दृढ़ता का नाम आत्मबल है। 

जो वासना और तृष्णा को, स्वार्थ और सुविधा को ठोकर मारकर अपने लिए नहीं, लोकमंगल के लिए सदाचार से भरा प्रेम और आत्मीयता का जीवन जी सकता है। उस महामानव को ही आत्मबल सम्पन्न कहा जाएगा। चरित्र के धनी, करुणा-दया से परिपूर्ण ह्रदय, उदारता और आत्मीयता से ओत-प्रोत व्यक्तित्व आत्मबल के ही प्रतीक हैं। 

संसार उनकी उपस्थिति से सुगन्धित, सुरभित, समुन्नत और व्यवस्थित होता है। वे अपने सामर्थ्य से दिशाएँ बदलने और हवाएं पलटने में समर्थ होते हैं। आत्मबल वह क्षमता है, जिसका जितना अंश मनुष्य के पास होगा, उतना ही वह अपने विवेक को सजग करने में समर्थ होगा। विवेक ही वह सत्ता है जो धन, बुद्धि, स्वास्थ्य आदि की भौतिक शक्तियों को नियंत्रण में रखकर उन्हें सन्मार्गगामी बनाती है, सत-उद्देश्य और सत-प्रयोजनों में प्रवृत्त करती है।

पुरुषार्थों में सबसे बड़ा पुरुषार्थ अपने गुण, कर्म,स्वभाव को सुसंस्कृत बनाना है। जिसने अपने को सुधार लिया, उसकी सारी उलझनें सुलझ जाती हैं। जिसने अपना निर्माण कर लिया, उसके लिए ही हर क्षेत्र में सफलता हाथ बांधे खड़ी होगी। उन्नति और सुख-समृद्धि के लिए आकांक्षा करना उचित है, पर इसके लिए आवश्यक क्षमता एवं योग्यता को जुटाना भी आवश्यक है। 

बाह्य परिस्थितियों में चाहे जितनी ही अनुकूलता क्यों न हो, यदि व्यक्ति भीतर से खोखला है, तो उसे प्रतिकूलता का ही सामना करना पड़ेगा। इसलिए अभीष्ट मार्ग पर सफलता प्राप्त करने के लिए बाह्य उपकरण उठाने के साथ-साथ आंतरिक सुधार के लिए भी प्रयत्नशील रहना चाहिए। यह भूल नहीं जाना चाहिए कि दुर्गुणी व्यक्ति कोई क्षणिक सफलता भले ही प्राप्त के ले, उसे अंतत: असफल ही रहना पड़ता है। अत: आत्मबल ही आत्मविश्वास है।

धर्म जगत

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