Published By:धर्म पुराण डेस्क

अभ्यास योग क्या है?

अभ्यासके साथ योग का संयोग न होने से साधक का उद्देश्य संसार ही रहेगा। संसार का उद्देश्य होने पर स्त्री पुत्र, धन-सम्पत्ति, मान-बड़ाई, नीरोगता, अनुकूलता आदिकी अनेक कामनाएँ उत्पन्न होंगी। कामना वाले पुरुष की क्रियाओं के उद्देश्य भी ( कभी पुत्र, कभी धन, कभी मान-बड़ाई आदि) भिन्न-भिन्न रहेंगे (गीता-दूसरे अध्यायका इकतालीसवाँ श्लोक) इसलिये ऐसे पुरुष की क्रिया में योग नहीं होगा। योग तभी होगा, जब क्रियामात्र का उद्देश्य (ध्येय) केवल परमात्मा ही हो।

साधक जब भगवत्प्राप्ति का उद्देश्य रखकर बार-बार नाम-जप आदि करने की चेष्टा करता है, तब उसके मन में दूसरे अनेक संकल्प भी पैदा होते रहते हैं, अतः साधक को 'मेरा ध्येय भगवत्प्राप्ति ही है'-इस प्रकार की दृढ़ धारणा

करके अन्य सब संकल्पों से उपराम हो जाना चाहिये। 

'मामिच्छाप्तुम्' पदों से भगवान् 'अभ्यासयोग' को अपनी प्राप्तिका स्वतन्त्र साधन बताते हैं।

पीछे के श्लोक र्मे भगवान्ने अपने में मन-बुद्धि अर्पण करनेके लिये कहा। अब इस श्लोकर्मे अभ्यास योग के लिये कहते हैं। इससे यह धारणा हो सकती है कि अभ्यासयोग भगवान्में मन-बुद्धि अर्पण करनेका साधन है, अतः पहले अभ्यास के द्वारा मन-बुद्धि भगवान्के अर्पण होंगे, फिर भगवान्की प्राप्ति होगी। परन्तु मन-बुद्धिको अर्पण करने से  ही भगवत प्राप्ति होती हो, ऐसा नियम नहीं है। भगवान्के कथन का तात्पर्य यह है कि यदि उद्देश्य भगवत प्राप्ति ही हो अर्थात् उद्देश्यके साथ साधककी पूर्ण एकता हो तो 'अभ्यास' से ही उसे भगवत प्राप्ति हो जायगी।

जब साधक भगवत प्राप्ति के उद्देश्यसे बार-बार नाम जप, भजन-कीर्तन, श्रवण आदिका अभ्यास करता है, तब उसका अन्तःकरण शुद्ध होने लगता है और भगवत प्राप्ति की इच्छा जाग्रत हो जाती है। सांसारिक सिद्धि-असिद्धिमें सम होनेपर भगवत प्राप्ति की इच्छा तीव्र हो जाती है। भगवत प्राप्ति की तीव्र इच्छा होनेपर भगवान्से मिलनेके लिये व्याकुलता पैदा हो जाती है। यह व्याकुलता उसकी अवशिष्ट सांसारिक -आसक्ति एवं अनन्त जन्मों के पापोंको जला डालती है। सांसारिक आसक्ति तथा पापोंका नाश होनेपर उसका एकमात्र भगवान्‌ में ही अनन्य प्रेम हो जाता है और वह भगवान्‌के वियोग को सहन नहीं कर पाता। जब भक्त भगवान्के बिना नहीं रह सकता, तब भगवान् भी उस भक्तके बिना नहीं रह सकते अर्थात् भगवान् भी उसके वियोग को नहीं सह सकते और उस भक्त को मिल जाते हैं।

साधक को भगवत्प्राप्ति में देरी होने का कारण यही है कि वह भगवान्‌के वियोगको सहन कर रहा है। यदि उसको भगवान्‌का वियोग असह्य हो जाय, तो भगवान्के मिलने में देरी नहीं होगी। भगवान्की देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदिसे दूरी है ही नहीं। जहाँ साधक है, वहाँ भगवान् हैं ही। भक्तमें उत्कण्ठा की कमीके कारण ही भगवत्प्राप्ति में देरी होती है। सांसारिक सुख भोग की इच्छाके कारण ही ऐसी आशा कर ली जाती है कि भगवत्प्राप्ति भविष्य में होगी। जब भगवत्प्राप्ति के लिये व्याकुलता और तीव्र उत्कण्ठा होगी, तब सुख-भोग की इच्छा का स्वतः नाश हो जायगा और वर्तमानमें ही भगवत्प्राप्ति हो जायगी।

साधक का यदि आरम्भसे ही यह दृढ़ निश्चय हो कि मेरेको तो केवल भगवत्प्राप्ति ही करनी है (चाहे लौकिक दृष्टिसे कुछ भी बने या बिगड़े) तो कर्मयोग, ज्ञानयोग या भक्तियोग-किसी भी मार्गसे उसे बहुत जल्दी भगवत्प्राप्ति हो सकती है।

जिस प्रकार भगवान्ने आठवें श्लोक में मन-बुद्धि अपने में अर्पण करनेके साधन को नवें श्लोक में अभ्यासयोग के साधन को अपनी प्राप्तिका स्वतन्त्र साधन बताया, उसी प्रकार यहाँ भगवान् 'मत्कर्मपरमो भव' (केवल मेरे लिये कर्म करनेके परायण हो) - इस साधनको भी अपनी प्राप्तिका स्वतन्त्र साधन बता रहे हैं।

जैसे धन-प्राप्ति के लिये व्यापार आदि कर्म करने वाले मनुष्यको ज्यों-ज्यों धन प्राप्त होता है, त्यों-त्यों उसके मनमें धनका लोभ और कर्म करने का उत्साह बढ़ता है, ऐसे ही साधक जब भगवान्‌ के लिये ही सम्पूर्ण कर्म करता है, तब उसके मन में भी भगवत्प्राप्ति की उत्कण्ठा और साधन करने का उत्साह बढ़ता रहता है। उत्कण्ठा तीव्र होने पर जब उसको भगवान्का वियोग असह्य हो जाता है, तब सर्वत्र परिपूर्ण भगवान् उससे छिपे नहीं रहते। भगवान् अपनी कृपा से उसको अपनी प्राप्ति करा ही देते हैं। यदि साधक का उद्देश्य भगवत्प्राप्ति ही है और सम्पूर्ण क्रियाएँ वह भगवान्‌ के लिये ही करता है, तो इसका अभिप्राय यह है कि उसने अपनी सारी समझ, सामग्री, सामर्थ्य और समय भगवत प्राप्ति के लिये ही लगा दिया। इसके सिवाय वह और कर भी क्या सकता है? भगवान् उस साधक से इससे अधिक अपेक्षा भी नहीं रखते। अत: उसे अपनी प्राप्ति करा देते हैं। इसका कारण यह है कि भगवान् किसी साधन-विशेष से खरीदे नहीं जा सकते। भगवान्‌ के महत्त्व के सामने सृष्टि मात्र का महत्त्व भी कुछ नहीं है, फिर एक व्यक्ति के द्वारा अर्पित सीमित सामग्री और साधन से उनका मूल्य चुकाया ही कैसे जा सकता है! अतः अपनी प्राप्ति के लिये भगवान साधक से इतनी ही अपेक्षा रखते हैं कि वह अपनी पूरी योग्यता, सामर्थ्य आदि को मेरी प्राप्ति में लगा दे अर्थात् अपने पास बचाकर कुछ न रखे और इन योग्यता, सामर्थ्य आदि को अपना भी न समझे।

 

धर्म जगत

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