पुराण कथाओं के रूप में लिखे गये हैं। वर्तमान इतिहासकार और राजनीति उनको इतिहास नहीं मानती। उनकी ऐतिहासिकता प्रमाणित नहीं, कहती है। सब की अपनी-अपनी दृष्टि, अपनी-अपनी सोच, अपनी-अपनी भावना, अपनी-अपनी मान्यता है।
इन कथाओं में अविरल, अविच्छिन्न, निरन्तरता, क्रमता है बाह्य दृष्टि से देखा जाए तो महाभागवत-देवीपुराण में देवियों के विविध रूपों उनके गुणों का वर्णन है, उनकी स्तुति है। शिव और सती तथा शिव और पार्वती के विवाह प्रसंग हैं। कथा के पढ़ने- सुनने का महात्म्य वर्णन है।
कथा पठन और श्रवण का पाठक एवं श्रोता स्तर पर प्रभाव भी भिन्न-भिन्न हैं कोई भक्ति भाव में डूबता-उतराता है, भक्ति रस का दिव्य पान करता है। कोई कौतूहल और विस्मय में आश्चर्य चकित होता है, रोमांचित होता है। कोई कपोल कल्पना कह कर उपहास उड़ाता है। कोई इतिहास, ऐतिहासिकता और राजनीतिक छल-प्रपञ्च के कुटिल उपादान तलाशता है।
सबके लिये विस्तृत आकाश है, अपनी आवश्यकता, अपनी इच्छा के अनुकूल वांछित प्राप्त करने का वरदान अतीतकालीन देवता, ऋषि आदि भी देते थे, वरदान आधुनिक युग की देवियाँ और देवता भी देते हैं। भिन्नता केवल अभीष्टित पाने की है।
पुरानी दादियाँ-नानियाँ अपने छोटे पोते-पोतियों, नाती-नातिनों को फुरसत के क्षणों में दुलार भरी थपकी देतीं, उनको देवी-देवताओं की कहानियाँ सुनाती, राजा-रानियों, राजकुमार-राजकुमारियों, दानवों-राक्षसों-जादूगरों की कहानियां सुनातीं, चन्द्रमा में सूत कातती बुढ़िया की कहानी सुनातीं, सुकोमल पंखों वाली उड़ती सुंदर परियों की कहानी सुनाती, हितोपदेश, पंचतंत्र और वीर पुरुषों स्त्रियों की कहानियाँ सुनाती, छोटे-छोटे बच्चे जिज्ञासु भाव से कहानियां सुनते।
अनजाने में ही उनमें सुन्दर संस्कार पनपते। बड़े होते संस्कारवान बनते। उनमें सेवा, दया, करुणा, प्रेम, आस्था के भाव पनपते। उस युग का अवसान हो गया। अब बच्चे बुद्धू बक्से में ऊटपटाँग कार्टून फिल्में देखते हैं, तड़क-भड़क वाले विज्ञापनों में कुरुचि परोसती सर्वांग उलेड़ती स्त्रियों की कामचेष्ठायें देखते हैं। तन बचपन का मन जवानी का हो जाता है। हिंसा-बलात्कार का खेल खेलते हैं।
आधुनिक शिक्षित पीढ़ी को वेद-पुराणों, रामायण-गीता से परहेज हैं। राजनीतिक दुष्चक्र उसे इनसे बचने, दूर रखने का उपक्रम करते हैं। हमारे आराध्यों, देवताओं को कामचारी व्यसनी और दुर्गुणी, तथा देवियों को कुलटा और दुश्चरित्र, पाठ्य पुस्तकों में लिखा जाता है।
बचपन से कैशोर्य तक ऐसी पाठ्य पुस्तकें पढ़ने से युवा पीढ़ी धर्मनिरपेक्ष बनती है। भारतीय प्रजातंत्र सफल होता है। 'आई लव यू' जोर-जोर से सड़कों पर गाती युवा पीढ़ी पारस्परिक प्रेम और सद्भाव का प्रदर्शन करती है। शक्ति रूपा देवी तो दिगम्बरा थी हीं, हमारे धर्मनिरपेक्ष प्रतिष्ठित चित्रकार नंगे-कामुक नारी शरीर में देवियों की प्रतिष्ठा कर महिमामंडित होते हैं।
प्राचीन भारतीय संस्कृति और परम्परा उत्सवधर्मी है। प्रत्येक तिथि, प्रत्येक माह, व्रत, उपवास, त्यौहार का दिन है। आराधना-उपासना का अविरल क्रम चलता रहता है। शरद ऋतु के क्वांर माह में और वसंत ऋतु के चैत्र माह में देवी पूजन, शक्ति आराधना अनुष्ठान के विशेष पर्व दिन हैं। इन्हें 'नवरात्रि' कहते हैं। नवदिन नहीं कहा गया, नवरात्रि कहा गया है|
देवी की साधना-आराधना के लिये एकांतिकता चाहिए। शक्ति का अर्जन दिन की भीड़-भाड़, काम-धाम में नहीं हो सकता, शक्ति का क्षय ही होता है। एकान्तिक अंतर्मुखता में शक्ति सर्जन-संचय सहज होता है। रात्रि के अंधकार में केवल वही देखने का प्रयास होता है जो हम देखना चाहते हैं, दिन के उजाले में वह सब भी अनायास - अनायाचित दिखता है, जो हम देखना नहीं चाहते। मन ज्यादा बहकता है, विचलित होता है, स्थिर नहीं हो पाता।
स्वामी विजयानंद
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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