(1) शिव – इच्छा-ज्ञान-क्रियात्मक पूर्णानंद स्वरूप परम शिव ही 'शिव' तत्त्व हैं । अर्थात् महेश्वर ही शिव हुए हैं।
(2) शक्ति – जगत की रचना करने वाले परमेश्वर का प्रथम स्पन्दन रूप, जो उसकी इच्छा है, उसे ही 'शक्ति' कहते हैं। अतः वह शक्तितत्त्व अप्रतिहत इच्छा वाला है।
(3) सदाशिव – सद्रूप अङ्कुरायमाण जगत की जो प्रथमावस्था है, जो अपने स्वरूप में अहंता से आच्छादन करके स्थित है, उसे 'सदाशिव' कहते हैं। अर्थात अहंता से इदंता का आच्छादन करने वाले तत्त्व को 'सदाशिव' कहते हैं।
(4) ईश्वर – अङ्कुरित जगत को अहंता द्वारा स्फुट रूप से जो ग्रहण किये हुए हैं, उन्हें 'ईश्वर' कहते हैं।
(5) शुद्ध विद्या – अहंता और इदंता (जगत् ) की एकता का बोध जिससे होता है उसे 'शुद्ध विद्या' तत्त्व कहते हैं। शुद्धाशुद्ध तत्वों में प्रथम 'माया तत्त्व' है।
(6) माया – स्व स्वरूप भावों में भेद प्रथा रूप 'माया' तत्त्व है। कहा भी है-
मायाविभेदबुद्धिर्निजांशजातेषु निखिलजीवेषु ।
नित्यं तस्य निरङ्कुशविभवं वेलेव वारिधे रुन्धे ॥
अर्थात जिस प्रकार वेला तट समुद्र द्वारा अवरुद्ध रहता है, वैसे ही माया समस्त जीवों में भेद-बुद्धि रूप रहती है।
(7) पुरुष – जब परमेश्वर अपनी परमेश्वरी महाशक्ति द्वारा स्वरूप ग्रहण करके संकुचित ग्राहकता को प्राप्त करते हैं, तब उसकी 'पुरुष' संज्ञा होती है।
(8) कला – उस पुरुष की किञ्चित् कर्तृत की 'कला' कहते हैं ।
(9) विद्या – किञ्चित् ज्ञान के कारण को 'विद्या' कहते हैं।
(10) राग – विषयों में प्रीति 'राग' है।
(11) काल – प्रकाशित और अप्रकाशित स्वरूप वाले भावों के क्रम का जो अविच्छेदक एवं भूतों का जो आदि है उसे 'काल' कहते हैं।
(12) नियति – मेरा यह 'कर्तव्य' तथा यह 'अकर्तव्य' है, इसके नियमन हेतु 'नियति' है। उपर्युक्त पाँचों तत्व जीव के आवरण करने वाले होने के कारण 'पञ्च-कंचुक' कहलाते हैं।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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