धर्मशास्त्र के अंतर्गत राजधर्म एक विशिष्ट महत्व रखने वाला विषय तो था ही, इसीलिए सभी धर्म शास्त्रकारों ने इसका सांगोपांग विवेचन किया है, किन्तु इस विषय की महत्ता इस बात से और अधिक प्रकट हो जाती है कि आदि काल से ही इस विषय पर पृथक रूप से पुस्तकें आदि लिखी जाती रही हैं।
शान्तिपर्व (अध्याय 59) में आया है कि आरम्भ में कृतयुग में न तो राजा था और न दण्ड-व्यवस्था थी, जिसके फलस्वरूप मानवों में मोह, मत्सर आदि का प्रवेश हो गया अतः धर्म को पूर्ण नाश से बचाने के लिए ब्रह्मा ने धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष (59/30 एवं 79) पर एक लाख अध्यायों वाला एक महान ग्रन्थ लिखा।
इस ग्रन्थ के नीति (शासन-शास्त्र) नामक भाग को शंकर विशालाक्ष ने संक्षिप्त करके दस सहस्र अध्यायों में लिखा (59/80), जिसे विशालाक्ष की संज्ञा मिली। पुन: इसे इन्द्र ने पढ़कर पाँच सहस्र अध्यायों में रखा और उसे बाहुदन्तक की संज्ञा दी गयी (59/83)।
आगे चलकर बाहुदन्तक को बृहस्पति ने तीन सहस्र अध्यायों में संक्षिप्त किया, जिसे लोगों ने बार्हस्पत्य नाम से पुकारा। पुनः बाईसत्य को काव्य (उशना) ने एक सहस्र अध्यायों में रखा। कामसूत्र (115/8) ने भी इसी से मिलती-जुलती एक गाथा कही है- प्रजापति ने एक लाख अध्यायों में एक महान ग्रन्थ लिखा, जिसे मनु ने धर्म-शास्त्र के रूप में, बृहस्पति ने अर्थशास्त्र के रूप में तथा नंदी ने कामशास्त्र के रूप में एक-एक सहस्र अध्यायों में संक्षिप्त किया।
शान्तिपर्व (69/33-74) ने ब्रह्मा के राजधर्म का जो निष्कर्ष उपस्थित किया है वह आश्चर्यजनक ढंग से कौटिल्य के अर्थशास्त्र के प्रमुख विषयों से मेल खाता है।
नीतिप्रकाशिका (1/21-22) में आया है कि ब्रह्मा, महेश्वर, स्कन्द, इन्द्र, प्राचेतस मनु, बृहस्पति, शुक्र, भारद्वाज, वेदव्यास एवं गौर शिरा राजधर्म के व्याख्याता थे; ब्रह्मा ने एक लाख अध्यायों वाला राजशास्त्र लिखा, जिसे उपर्युक्त लोगों ने क्रम से संक्षिप्त किया और गौरी शिरा एवं व्यास ने उसे क्रम से पाँच सौ एवं तीन सौ अध्यायों में रखा शुक्रनीतिसार (1/2-4) में आया है कि ब्रह्मा ने एक लाख श्लोकों में नीतिशास्त्र लिखा, जिसे आगे चलकर वशिष्ठ तथा अन्य लोगों ने (शुक्र ने भी) संक्षिप्त किया।
शासन-शास्त्र के लिए कतिपय शब्दों एवं नामों का प्रयोग हुआ है सर्वोत्तम एवं उपयुक्त नाम राजशास्त्र है जिसका प्रयोग महाभारत ने किया है। महाभारत में बृहस्पति, भारद्वाज तथा अन्य लेखकों को "राजशास्त्र-प्रणेतारः” कहा है|
नीतिप्रकाशिका (1/21-22) ने शासन पर लिखने वाले मानव एवं देव लेखकों को "राजशास्त्राणां प्रणेतारः” की उपाधि दी है। अश्वघोष ने अपने बुद्धचरित (1/46) में इसी नाम का प्रयोग किया है। 3 प्रो० एगर्टन द्वारा सम्पादित पञ्चतन्त्र के प्रथम श्लोक में मनु, बृहस्पति, शुक्र, पराशर एवं उनके पुत्र, चाणक्य तथा अन्य लोगों को नृप शास्त्र के लेखक कहा गया है।
इसका एक अन्य नाम है दण्डनीति शान्तिपर्व (59/79) ने इस शब्द का अर्थ किया है- "यह विश्व दण्ड के द्वारा अच्छे मार्ग पर लाया जाता है, या यह शास्त्र दण्ड देने की व्यवस्था करता है, इसी से इसे दण्डनीति की संज्ञा मिली है और यह तीनों लोकों में छाया हुआ है।"
शान्तिपर्व ने दण्डनीति को 'राजधर्म' से मिला दिया है (63/28) कौटिल्य (1/4) ने व्याख्या उपस्थित की है- "दण्ड वह साधन है जिसके द्वारा आन्वीक्षिकी, त्रयी (तीनों वेदों) एवं वार्ता का स्थायित्व एवं रक्षण अथवा योगक्षेम होता है, जिसमें दण्ड- नियमों की व्याख्या होती है वह दण्डनीति है; जिसके द्वारा अलब्ध की प्राप्ति होती है, लब्ध का परिरक्षण होता है, रक्षित का विवर्धन होता है और विर्वार्धत (बढ़ी हुई सम्पत्ति) का सुपात्रों में बँटवारा होता है ।" इसी अर्थ से मिलती उक्ति महाभारत में भी पायी जाती है|
शान्तिपर्व 69/102। नीतिसार (2/15) का कहना है कि दम (नियंत्रण या शासन) को दण्ड कहा जाता है, राजा को 'दंड' की संज्ञा इसलिए मिली है कि उसमें नियंत्रण केन्द्रित है, दण्ड की नीति या नियमों को दण्डनीति कहा जाता है और नीति यह संज्ञा इसलिए है कि वह (लोगों को) ले चलती है।"
शान्तिपर्व (69/104) का कहना है कि दण्डनीति क्षत्रिय (राजा) का विशिष्ट व्यापार है वनपर्व (150/32) में आया है कि बिना दण्डनीति के सारा विश्व अपने बन्धन तोड़ डालेगा (और देखिए शान्तिपर्व 15/29, 63/28, 69/74)। दण्डनीति सम्पूर्ण विश्व का आश्रय है और यह देवी सरस्वती द्वारा उत्पन्न की गई है (शान्तिपर्व 122/25)।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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