 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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भारतीय संस्कृति में राम-राज्य सदा से सुराज्य का पर्यायवाची रहा है।
राम राज्य का वह युग सचमुच अतिशय समुन्नत एवं न्याय और नीति पर आधारित । भारतीय शासन-व्यवस्था का एक स्वर्ण युग था। तत्कालीन राजनीति के आदर्श आज भी हमारी पहुँच के बाहर हैं। तब वे शासन तन्त्र के निरन्तर व्यवहार में आने वाले दैनिक सूत्र थे।
आधुनिक प्रजातंत्रात्मक शासन व्यवस्था के भी बहुत-से संकेत हमें उस समय की राज्य व्यवस्था में अनायास ही प्राप्त हो जायेंगे।
शासन तंत्र का स्वरूप:
रामायणकालीन भारत में कई स्वतंत्र राज्य थे जैसे मिथिला, काशी, कोसल, केकय, सिन्धु सौवीर, सौराष्ट्र, विशाला, सांकशी, अंग, मगध और मत्स्य हिमालय और विंध्य पर्वत के मध्य का भूभाग आर्यावर्त था। विन्ध्य पर्वत के दक्षिण में वानरों और राक्षसों के प्रदेश थे। उस समय भारत में कोई एकछत्र साम्राज्य नहीं था। पर अयोध्या के राजा की सत्ता निकटवर्ती सामंत राजाओं पर पर्याप्त थी।
दशरथ को 'नतसामन्तः ' कहा गया है। विश्वामित्र उनसे पूछते हैं कि क्या आपके सामंत राजा तथा शत्रुगण आपके अधीन हैं ?'
अपि ते संनताः सर्वे सामन्तरिपवो जिताः ।
रामराज्य में प्रचलित शासन तन्त्र के स्वरूप को मर्यादित राजतन्त्र (Limited Monarchy) कहा जा सकता है। स्थायी सरकारके अभाव में होनेवाली अराजकता के दोपों से जनता सुपरिचित थी। जनताका एक संवैधानिक शासक द्वारा स्थापित सुदृढ़ शासन व्यवस्था में परम विश्वास था।
राजा का पद कुल-परम्परागत था। फिर भी नया शासक वर्तमान राजा तथा मंत्रिमंडल के द्वारा प्रस्तावित किया जाता और सभा (धारा सभा) के द्वारा चुना जाता था।
श्री राम को युवराज बनाने के पूर्व दशरथ ने अपनी सभा की स्वीकृति सारे मंत्रियों ने सुग्रीव को राजा चुन लिया था। राजा नृग ने प्राप्त कर ली थी। बाली की अनुपस्थिति में अपनी सभा के समक्ष अपने पुत्र को उत्तराधिकारी बनाने का प्रस्ताव किया था।
ज्येष्ठ पुत्र ही प्रायः युवराज पद का अधिकारी होता था। जब श्रीराम ने भरत को राज्य ग्रहण करने के लिये कहा, भरत ने उत्तर दिया कि ज्येष्ठ पुत्र के जीते जी उसके छोटे भाई राजा कभी नहीं बन सकते। किंतु इस नियम में अपवाद भी थे।
ज्येष्ठ पुत्र पिता या जनमत द्वारा अधिकारच्युत किया जा सकता था। सगर का ज्येष्ठ पुत्र असमंजस रास्तों से बालकों को उठाकर नदी में फेंक दिया करता था। प्रजाजनों की प्रार्थना पर सगर ने अपने दुष्ट पुत्र को वन में निर्वासित कर दिया।
राजा ययाति ने ज्येष्ठ पुत्र यदु को राज्य न देकर अपने आज्ञाकारी कनिष्ठ पुत्र को पूरु को ही राज्य दिया। पुत्र के अभाव में राजा का भाई युवराज बनाया जाता था।
श्री राम के राज्याभिषेक के पश्चात् भरत को युवराज बनाया गया, क्योंकि उस समय तक श्री राम के कोई पुत्र नहीं था। अन्तर्वर्ती काल में नये राजा के चुनाव का प्रबंध मंत्रिमंडल के सदस्य करते, जो 'राजकर्ता' कहलाते थे। दशरथ की मृत्यु पर ब्राह्मण, अमात्यों, मंत्रिमंडल के सदस्यों और राजपुरोहित ने राज पद रिक्त होने से उत्पन्न होने वाली समस्याओं पर विचार किया।
मंत्रिमंडल की सहमति से मुख्य सचिव वशिष्ठ ने सभा की ओर से राम के दूसरे भाई भरत को बुलाया और राम द्वारा छोड़े गये राज्य को स्वीकार करने को आमंत्रित किया। भरत ने नियम विरुद्ध राज्य ग्रहण करने से इनकार किया। और वे रानियों, नागरिकों, सभा के सदस्यों और पुरोहितों को साथ ले श्री राम को लौटाने के लिए चित्रकूट गए।
जब श्री राम ने दशरथ और कैकेयी के समक्ष की गयी राज त्याग की अपनी प्रतिज्ञा तोड़ना अस्वीकार कर दिया, तब भरत ने श्री राम की आज्ञा से चौदह वर्षों तक उन्हीं के नाम से कौशल देश का एक प्रबंधक (Regent) के रूप में शासन भार संभाला|
राजागण प्रजा द्वारा ईश्वरीय विभूति के रूप में देखे जाते और प्रगाढ़ भक्ति के पात्र माने जाते थे। श्री राम ने वाली से कहा था कि 'राजा लोग दुर्लभ धर्म, जीवन और लौकिक अभ्युदय के देने वाले होते हैं। अतः उनकी निंदा, हिंसा तथा उनके प्रति आक्षेप नहीं करना चाहिये वे वास्तव में देवता हैं, जो मनुष्य रूप से इस पृथ्वी पर विचरते हैं।'
मनुष्य पाप करके यदि राजा के दिये हुए दण्ड को भोग लेते हैं तो वे शुद्ध होकर पुण्यात्मा पुरुषों की भांति स्वर्गलोक में जाते हैं। रावण के मतानुसार तेजस्वी राजा अग्नि, इन्द्र, सोम, यम और वरुण-इन पांचों देवताओं के स्वरूप को धारण किये रहते हैं, इसलिए उनमें इन पाँचों के गुण प्रताप, पराक्रम, सौम्य, स्वभाव, दण्ड और प्रसन्नता - विद्यमान रहते हैं। अतः सभी अवस्थाओं में राजाओं का सम्मान और पूजन करना चाहिये।
आदर्श राजा के लक्षण वाल्मीकि के अनुसार आदर्श राजा गुणवान्, पराक्रमी, धर्मज्ञ, उपकार मानने वाला, सत्यवक्ता, दृढ़प्रतिज्ञ, सदाचारी, समस्त प्राणियों का हित साधक, विद्वान्, सामर्थ्यशाली, प्रियदर्शन, मन पर अधिकार रखने वाला, क्रोध को जीतने वाला, कान्तिमान, अनिन्दक और संग्राम में अजेय योद्धा होता है।
नारद द्वारा वर्णित आदर्श राजा के लक्षण शारीरिक, मानसिक और नैतिक विशेषताओं में विभाजित किये जा सकते हैं।
शारीरिक दृष्टि से आदर्श राजा का व्यक्तित्व आकर्षक एवं प्रभावोत्पादक होता है। उसके कंधे मोटे, भुजाएँ बड़ी-बड़ी, ग्रीवा शंख के समान, ठोढ़ी भरी हुई, छाती चौड़ी, गले के नीचे की हड्डी मांस से छिपी हुई, भुजाएँ घुटनों तक लम्बी, मस्तक सुन्दर, ललाट भव्य, चाल मनोहर, शरीर मध्यम और सुडौल, देह का रंग चिकना, वक्षस्थल भरा हुआ और आंखें बड़ी होती हैं।
मानसिक दृष्टि से वह बुद्धिमान, नीतिज्ञ, वक्ता, ज्ञानी, वेद-वेदांग के तत्त्व को जानने वाला, धनुर्वेद में प्रवीण, धर्म का ज्ञाता, अखिल शास्त्रों का मर्मज्ञ, स्मरण शक्ति से युक्त तथा प्रतिभा सम्पन्न होता है। नैतिक दृष्टि से वह धैर्यवान्, जितेन्द्रिय, सत्यप्रतिज्ञ, पवित्र, यशस्वी, श्री सम्पन्न, अच्छे विचार और उदार हृदय वाला होता है।
हनुमान के अनुसार, आदर्श राजा पूर्णचंद्र के समान मनोहर मुख वाला; पद्मपत्र के समान विशाल नेत्रों से युक्त; रूप और औदार्य से सम्पन्न; तेज, क्षमा, बुद्धि और यश से युक्त; सदाचार, धर्म और चातुर्वर्ण्य का रक्षक; परम प्रकाश स्वरूप; राजनीति में पूर्ण शिक्षित, ब्राह्मणों का उपासक; ज्ञानी, शीलवान्, विनम्र, वेद-वेदांग का परिनिष्ठित विद्वान् और सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार शुभ अंग प्रत्यंगों से युक्त होता है।
अयोध्या की जनता के अनुसार आदर्श राजा वीर्यवान्, स्थितप्रज्ञ, विद्वान, सभी विद्याओं और वेद-वेदांगों की भली भांति जानने वाला, मधुरभाषी, सज्जन, ईर्ष्या, असूया और मात्सर्य से दूर, वृद्धों और ब्राह्मणों का प्रतिपूजक, सदैव शांत, कृतज्ञ, सदाचारी, शीलसम्पन्न, मार्दव और कोमलता से युक्त, क्षमावान, प्रजा प्रिय, दूसरों के अन्तर्गत विचारों को तुरंत ताड़ने वाला, दयालु, आलस्य और अभिमान से शून्य, धर्म, अर्थ और काम का ज्ञाता, गंभीर, मंत्र को गुप्त रखने वाला, भाषा-ज्ञान में निपुण, संगीत, वाद्य और चित्रकारी का विशेषज्ञ, शत्रु पर आक्रमण और प्रहार करने में कुशल, सेना संचालन में निपुण, दोषदृष्टि से रहित, अमित तेजस्वी, रूपवान, पराक्रमी, बाहर और भीतर से शुद्ध, युक्तियाँ देने में बृहस्पति के समान, नीरोग तरुण, असाधारण वक्ता, सुन्दर विग्रह से सुशोभित, देश-काल के तत्व को समझने वाला और दीनता से रहित होता है। रामायण के अनुसार उपर्युक्त सभी लक्षण श्रीराम में घटित होते थे।
राजकुमारों की शिक्षा:
रामायण काल में राजकुमारों को दी जाने वाली शिक्षा का अनुमान श्रीराम के शिक्षण से किया जा सकता था। श्रीराम को हाथी और घोड़े की सवारी, रथ चर्या, धनुर्वेद, घोड़े पर बैठकर शिकार, धनुष और तलवार का प्रयोग, सैन्य संचालन प्रणाली, आक्रमण और प्रहार की शैली, राजनीति, संगीतशास्त्र, वाद्य और चित्रकारी, वेद-वेदांग तथा उस समय के सभी शास्त्रों और कलाओं की शिक्षा दी गयी थी।
उपाध्याय सुधन्वा ने उन्हें सैनिक शिक्षा दी थी तथा वशिष्ठ पुत्र सुयज्ञ ने वैदिक शिक्षा। ब्रह्मचर्य धारण कर श्री राम ने समग्र शिक्षाक्रम का नियमानुसार अभ्यास किया था। विद्वान् गुरुओं ने उन्हें भली भांति शिक्षित और अनुशासित किया था।
शब्दवेधी विद्या में राजकुमारों को पारंगत बनाया जाता था। मुनिकुमार के वध में दशरथ ने तथा ताड़का के वध में श्रीराम ने अपनी शब्दवेधी विद्या की प्रवीणता दिखलायी थी।
युवराज को सैन्य संचालन का अभ्यास कराने के लिये उसे उच्च सैनिक पदाधिकारियों के साथ रखा जाता था। सुग्रीव ने अपने सेनापति नील को आदेश दिया था कि सेना के एकत्रीकरण में युवराज अंगद को जाम्बवान तथा अन्य उच्च सैनिक अधिकारियों के सम्पर्क में रखा जाय।
अपने विवाह के पश्चात युवराज श्रीराम राज्य और प्रसाद के प्रबन्ध में अपने पिता की सहायता किया करते थे। उन्हें कई सैनिक कार्रवाइयों का भी संचालन करना पड़ता था। राजकुमारों का विवाह उनकी वैदिक और सैनिक शिक्षा के अनन्तर होता था। राजा लोग मृगया, संगीत, नृत्य, कथा वार्ता तथा हास्य-गोष्ठी द्वारा अपना मनोरंजन करते थे।
राजप्रासाद:
राजा का महल 'राज वेश्म' कहलाता था। उसमें कई मंजिलें होती थीं। उसे 'विमान' भी कहते थे। उनकी स्थिति नगर के मध्य में होती थी। महल से नगर को जाने वाले मार्ग 'राजमार्ग' कहलाते थे। इन मार्ग पर धनिकों के मकान, दुकानें तथा बाजार होते थे।
महलों में कई चौक होते थे, जिनमें अलग-अलग द्वार होते थे। अयोध्या के राज-प्रसाद में पाँच चौक थे। आरम्भ के तीन चौकों को रथ से पार किया जा सकता था। शेष दो में पैदल चलना पड़ता था।
राजा का व्यक्तिगत निवासस्थान या निवास 'अंतःपुर' कहलाता था। अन्तःपुर में तीन कक्षाएं होती थीं। बाह्य-कक्षा में राजा की सभा लगती थी, जहाँ बैठकर वे अपना सार्वजनिक कार्य करते थे।
मध्य कक्षा में राजा अपने भाइयों, गुप्तचरों और मंत्रियों आदि के साथ गुप्त मंत्रणा किया करते थे। अन्तिम कक्षा में राजा की रानियां रहती थी, जहाँ राजा, स्त्री अनुचरों, नपुंसकों तथा द्वाराध्यक्षों के अतिरिक्त किसी को प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी।
इसी कक्षा में रानियों के मनोरंजनार्थ एक अशोक वाटिका लगी रहती थी। स्त्रियां बाह्य और मध्य कक्षा में नहीं होती थीं। राज महल के द्वारपाल को महल में प्रवेश करने वालों पर कड़ी निगाह रखनी पड़ती थी, जिससे धूर्त अथवा शत्रु के चर अंदर न आ सकें।
राजकुमारों के लिये अलग निवास स्थान बनाये जाते थे। दशरथ के सभी राजपुत्र अपने पृथक् और समृद्ध राजमहलों में रहते थे।
राजा के कर्तव्य:
राजा को व्यक्तिगत हित को अपेक्षा जनहित का विशेष ध्यान रखना पड़ता था। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है— राजा सगर को अपनी जनता के कल्याण के लिये अपने दुष्ट पुत्र को निर्वासित कर देना पड़ा था। श्री राम ने प्रजा की प्रसन्नता के लिये अपनी प्रिय भार्या सीता का परित्याग कर दिया। राजा को जनमत के समक्ष झुकना पड़ता था।
राजा समस्त देश का संरक्षक था। धर्मानुसार न्याय वितरण करना उसका कर्तव्य था। उसका यह एक लक्ष्य था कि चारों वर्ण स्वकर्मनिरत हैं या नहीं। प्रजा राजा को अपनी आय का छठा भाग (बलिषड्भाग) कर रूप में देती थी। बदले में राजा पर दुष्टों के दमन और साधुओं के रक्षण का भार आ पड़ता था। यदि राजा दण्ड देने में प्रमाद कर जाए तो उसे दूसरों के किये हुए पाप भी भोगने पड़ते हैं।
दशरथ के अनुसार राजा को काम और क्रोध से उत्पन्न होने वाले दुर्व्यसनों का सर्वथा त्याग करना चाहिये, स्वयं जाँच-पड़ताल कर तथा गुप्तचरों द्वारा पता लगाकर समुचित न्याय करना चाहिये|
मंत्री, सेनापति आदि अधिकारियों तथा समस्त प्रजा को प्रसन्न रखना चाहिए तथा भण्डार घर और शस्त्रागार में उपयोगी वस्तुओं का विशाल संग्रह रखना चाहिये। राजा का आचार-व्यवहार आदर्श होना चाहिये, क्योंकि प्रजा राजा के पदचिन्हों का ही अनुसरण करती है।
इन्द्रियनिग्रह, मन का निग्रह, क्षमा, धर्म, धैर्य, पराक्रम और अपराधियों को दंड देना- ये राजा के गुण हैं। राजाओं को स्वेच्छाचारी नहीं होना चाहिए। नीति और विनय, दण्ड और अनुग्रह – उनका अविवेक पूर्वक उपयोग करना उनके लिए उचित नहीं है। उन्हें अनावश्यक हिंसा नहीं करनी चाहिये|
एक के अपराध के लिये अनेक का संहार अनुचित है। उन्हें न्यायप्रिय और लोकप्रिय बनना चाहिए । राजकाज में राजा को सक्रिय योग देना चाहिये। जब सुग्रीव ने राज्य का कार्य मंत्रियों को सौंप दिया और उनके कार्यों की स्वयं देखभाल तक नहीं करने लगे, तब हनुमान ने उपालम्भ देकर उन्हें सचेष्ट किया था।
राजा का दैनिक कार्यक्रम क्या होना चाहिए, इसका उदाहरण श्री राम की दैनिक चर्या से प्राप्त होता है। प्रतिदिन सूर्योदय से पूर्व वन्दे गण आकर स्तुति और संगीत द्वारा राजा को जगाते थे। उठने के पश्चात् राजा स्नान करते, वस्त्राभूषण धारण करते तथा कुलदेवता, पितरों और विप्रो की पूजा करते थे।
तत्पश्चात् श्री राम बाह्य कक्षा में जाकर सार्वजनिक कार्यों को निपटाते थे। यहाँ वे अमात्यों, पुरोहितों, सैनिक अधिकारियों, जानपदों, सामन्त राजाओं, ऋषियों तथा पौरवर्गोंके साथ सभा का कार्य-संचालन करते थे।
पौर कार्य में व्यस्त न होने पर मुनियों के धर्म-प्रवचनों का श्रवण करते थे। अपराह्न का समय श्री राम अपने अन्तःपुर के अशोक वन में सीता के साथ व्यतीत करते थे। दिन के शेष समय में वे मध्यकक्ष्या में गुप्तचरों आदि के साथ महत्त्वपूर्ण मन्त्रणा करते थे।
शांति कुमार नानूराम व्यास
 
 
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