 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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आत्म-विकास एक प्राकृतिक धर्म है क्योंकि मनुष्य स्वभाव से ही महत्वाकांक्षी जीव होता है। वह अपनी स्थिति से कभी संतुष्ट नहीं रहता, दूसरों से स्पर्धा करता है।
संसार के संघर्षमय, प्रतियोगितामय जीवन में मनुष्य बिना आत्मोत्थान किए बिना अपना एक निश्चित स्थान बनाए खड़ा नहीं रह सकता। सभी महत्त्वानुरागी हैं; सभी को जीविका, प्रतिष्ठा और सुख प्राप्ति की चिंता रहती है, इसलिए सभी उनके लिए प्रयत्नशील रहते हैं।
ऐसी स्थिति में सबलता प्राप्त किए बिना जीवन में सफलता प्राप्त करना कठिन है। जगत् का यह प्राकृतिक नियम है कि अचर वस्तुएं सचर प्राणियों द्वारा योग्य होती हैं और प्राणियों में कायर प्राणी वीरों के अन्न (खाद्य) होते हैं|
आत्म-विकास करना एक राष्ट्रीय धर्म भी है क्योंकि, महात्मा गांधी के शब्दों में, यदि प्रत्येक व्यक्ति आत्मोद्धार कर ले तो सारे देश का उद्धार हो सकता है| नैतिक, भौतिक, व्यक्तिगत, सामाजिक सभी दृष्टियों से आत्म-विकास करना मनुष्य का परम कर्तव्य है।
प्रत्येक व्यक्ति स्वयं अपना पूर्वज होता है। मनुष्य बाहरी साधनों की सहायता से नहीं, मुख्यतः आत्म-शक्ति द्वारा ही आत्म-विकास करता है। प्रत्येक व्यक्ति अपना विधाता स्वयं होता है। दूसरे शब्दों में, ईश्वर हमको जैसा बना देता है, हम वैसे ही नहीं बने रहते।
हम वही हैं, जो हम अपने साधनों से अपने को बनाते हैं। समाज हमारे ईश्वर- निर्मित रूप को उतना मान नहीं देता, जितना स्वनिर्मित रूप को। सभी द्विज हैं- एक रूप में वे मनुष्य होकर जन्म लेते हैं, दूसरे रूप में वे नर-देव, नर-पिशाच, नर-पशु या गर्दभ कहे एवं माने जाते हैं। इससे स्पष्ट है कि मनुष्य अपने को जैसा बनाता है, उसी के अनुसार उसकी गणना होती है। मनुष्य कार का विशेष सम्मान नहीं होता, बल्कि गुण-कर्म के आधार पर मानवता, दानवता या पशुता की पहचान होती है।
आत्मा के पुनर्जन्म में विश्वास करने से भी इस सत्य को मानना पड़ेगा कि प्रत्येक व्यक्ति स्वयं अपना पूर्वज होता है और अपने कर्म के अनुसार फल पाता है -- विकास या विनाश को प्राप्त होता है: 'कर्मायत्तं फलं पुंसां बुद्धिः कर्मानुसारिणी।'
आत्मोन्नति कैसे की जाती है, या की जा सकती है- इस पर विचार करना चाहिए। जीवन का क्षेत्र बहुत व्यापक है; अनेक दिशाओं में लोग अनेक उपायों एवं साधनों से आगे बढ़ते हुए देखे जाते हैं।
प्रतिभाशाली व्यक्ति अवसर के अनुकूल साधनों का निर्माण करते हैं। विलक्षण प्रतिभा वाले प्रायः अपना मार्ग स्वयं बनाते हैं, दूसरों के मार्ग पर नहीं चलते। कहा भी है कि 'लीक छाड़ि तीनो चले सायर, सिंह, सपूत' (कबीर)। ऐसी दशा में किसी एक मार्ग की ओर संकेत करके यह नहीं कहा जा सकता कि यही सफलता का मार्ग है।
केवल कुछ ऐसे मूल गुणों की ओर संकेत किया जा सकता है जो सफल व्यक्तियों के मूल चरित्र में मिलते हैं। उनके आधार पर मनुष्य स्वयं साधना करके अपने जीवन मार्ग को बना सकता है या ढूंढ सकता है। उचित रीति यही है कि जब तक अपने पैरों में बल और अपनी बुद्धि में स्वतंत्र विचार करने की शक्ति न आ जाए तब तक महत्वाकांक्षी व्यक्ति महापुरुषों के कार्य को ही अपना मार्ग माने।
 
 
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