आत्म-ज्ञान का अर्थ है— अपने को पूर्ण रूप से पहचानना, अपने लेवल को जानना, अपनी साधक और बाधक चित्त वृत्तियों को समझना। अपनी इच्छाओं, कल्पनाओं और विचारधाराओं एवं शरीर-सामर्थ्य को तोलना ही आत्म-ज्ञान है।
प्राचीन नीतिकार अप्पय दीक्षित ने लिखा है कि नीति-शास्त्र के पंडित, ज्योतिषी, चतुर्वेदी, शास्त्री और ब्रह्मज्ञानी बहुत मिलते हैं, परन्तु अपने अज्ञान को समझने वाले विरले ही मिलते हैं :
नीतिज्ञा नियतिज्ञा वेदज्ञा श्रपि भवन्ति शास्त्रज्ञाः।
ब्रह्मज्ञा श्रपि लभ्याः स्वज्ञान ज्ञानिनो विरलाः॥
अपने अज्ञान, अपनी अपूर्णता और असमर्थता को समझकर ही अपने को संस्कारित ज्ञान गुण से संबंधित तथा आत्म-शक्ति से समृद्ध बनाया जा सकता है। श्रात्म-शुद्धि आत्मज्ञानी वही हो सकता है जो सच्चाई के साथ स्वयं आत्म- स्वरूप को देखे। शरीर शास्त्री डाक्टर आत्मज्ञानी नहीं माना जाएगा।
कोई भी व्यक्ति जो अपनी समर्थता और विवशता का विवेचन कर सके, आत्मज्ञानी हो सकता है। आत्मज्ञान के बाद आत्म शुद्धि की परम आवश्यकता होती है; क्योंकि आत्मा की देवी सम्पत्तियों को अनेक आसुरी सम्पत्तियां या प्रवृत्तियां उसी प्रकार घेरे रहती हैं जैसे प्राचीन ऋषि-मुनियों को दिन में भी निशाचर घेरे रहते थे। अपनी मनोव्याधियों से मुक्त होकर ही मनुष्य स्वस्थचित्त होकर आत्म-विकास कर सकता है। अतएव आत्म-शुद्धि नितान्त आवश्यक है। यह आत्म- शुद्धि रेंडी का तेल पीने से नहीं, बल्कि मन के मिथ्या विकारों को भगाने होती है।
मानसिक व्याधियों की सेना बहुत बड़ी है। उनमें से अधिकांश भय से उत्पन्न होकर स्वयं भयोत्पादक हो जाती हैं- जैसे किसी मां की लड़की कुछ दिनों में स्वयं मां बन जाती है। मानसिक भीरुता जीवन की प्रगति रोक देती है; इसलिए उसके विषय में कुछ जान लेना आवश्यक है।
भय मुख्यतः इन कारणों से उत्पन्न होता है:
अज्ञान - किसी विषय को जब मनुष्य नहीं समझता तो उससे डरता है। अंधेरी कोठरी में जाने से पहले जिस प्रकार भय लगता है, वैसे ही किसी काम में अनभिज्ञ होने पर उसको करने में डर लगता है| प्रकाश से भय स्वभावतः नष्ट हो जाता है- वह चाहे सूर्य प्रकाश हो या आत्म प्रकाश अथवा ज्ञान प्रकाश।
संशय - किसी बात को न समझने से जो संदेह उत्पन्न होता है। अथवा समझने पर भी स्वभाववश जो विचिकित्सा की भावना होती है। उससे भय तत्काल उत्पन्न होता है। मन में शंका होने पर छोटी वस्तु भी बड़ी लगती है, झाड़ी में भी भूत दिखलाई पड़ता है| संदेह से भ्रम और भ्रम से निराशा उत्पन्न होती है ।
उदासीनता - नीरसता या उदासीनता से जीवन-रथ के दो मुख्य घोड़े - आशा और उत्साह- मर जाते हैं और मनुष्य को संसार अंध- कारमय, मायामय और भयदायक लगता है। विरक्ति से निर्भीकता की नहीं बल्कि निराशा और भय की सृष्टि होती है।
श्रात्म-विकास-
अनिश्चितता - मन की अस्थिरता या अनिश्चितता अथवा उच्छृंखलता से जो व्यग्रता उत्पन्न होती है, वह भी अन्ततः भय का कारण होती है| मनुष्य जब दृढ़मति होकर सप्रयोजन एक निश्चित दिशा की ओर नियम से चलता है तो संकटपूर्ण परिस्थिति में भय उसको नहीं लगता|
नैतिकता - यह भय की बड़ी मां है। चरित्र की निर्मलता से मनुष्य पद-पद पर डरता है। शारीरिक अपराध से ही नहीं, मानसिक अपराध से भी उसके भय का बीजारोपण होता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, दम्भ, स्वार्थ, घृणा, प्रतिकार-भावना और अनुचित पक्षपात से भीतर-भीतर आत्मा कांपती है।
मिथ्या भाषण, मिथ्या व्यवहार अथवा मिथ्या विश्वास या अंधविश्वास से तो भय अवश्य ही बढ़ता है। हिंसा या क्रूरता से भय का भयानक संचार होता है। फ्रांस के एक महान मान्य ग्रंथकार ने लिखा है कि अत्याचार और भय परस्पर हाथ मिलाते हैं, एक-दूसरे के सखा होते हैं ।'
भयभीत दशा में मनुष्य क्रूरता करता है और क्रूरता करने के बाद उसको भय लगता है। मनुष्य अनैतिक आचरण से भयभीत होता है और भयभीत होने पर अनैतिक आचरण करता है। नैतिक पक्ष प्रवल होने पर एक व्यक्ति में भी दस हज़ार व्यक्तियों का मनोवल आ जाता है।
अशक्तता - भय और अशक्तता भी एक-दूसरे के बाप-बेटे हैं। किसी भी प्रकार की निर्बलता में प्रतिपक्षी की चिंता होती है। स्वास्थ्य के निर्बल होने पर रोग का, मन के निर्बल होने पर परिस्थितियों का, और व्यक्तित्व के निर्बल होने पर शत्रु का भय मन में आता है। इसी प्रकार भयत्रस्त रहने पर सभी बातों में अशक्तता आ जाती है।
घबराहट और रोगजन्य अशक्तता - दोनों से नाड़ी की गति बढ़ती है, हृदय धड़कता है। इसी से समझना चाहिए कि भय और अशक्तता का प्रभाव एक-सा होता है। जब मनुष्य अपने को अशक्त पाता है, तभी वह वेदना या वेदना की कल्पना से भयाक्रांत होता है।
छोटे बच्चे अशक्त होते हैं तभी तो वे बात-बात में डरकर चिल्लाते हैं। अशक्त होने पर दूसरों से ही नहीं, अपने से भी डर लगता है। क्षीणकाय व्यक्ति सदैव डरता है कि कहीं उसके हृदय की गति न रुक जाए। शरीर और मन से दुर्बल बच्चे कभी-कभी अपने चिल्लाने की आवाज में चौंकते हैं।
अयोग्यता - अयोग्यता के कारण मनुष्य को यह भय सदा बना रहता है कि कहीं कोई भूल न हो जाए और उस भय से प्रायः भूल हो ही जाती है क्योंकि मन में भय रहने से रही-सही योग्यता भी स्फुटित नहीं होने पाती, मनुष्य की बोली तक बंद हो जाती है; वह हक्का- बक्का हो जाता है।
अकर्मण्यता - हाथ पर हाथ रखकर बैठने से भय मुंह खोलकर सामने खड़ा हो जाता है। आलस्य से पुरुषार्थ क्षीण हो जाता है और भयंकर परिस्थितियां मनुष्य को दवा लेती हैं। उसको चारों ओर भय के भूत ही दिखलाई पड़ते हैं। काम के साथ भय निश्चित रूप से समाप्त हो जाता है।
जब मनुष्य एक दिशा में चल पड़ता है तो भय उसके पैरों के नीचे आ जाता है। युद्ध-स्थलों में यह देखा गया है कि युद्धारम्भ के पूर्व बहुत-से सिपाही भावी संहार की कल्पना से भयभीत रहते हैं परन्तु युद्ध के प्रारंभ होने पर भीत सैनिक भी गोलियों की बौछार में निर्भय होकर दौड़ता है। इसका कारण केवल यह है कि कर्मोद्यत होने पर भय समाप्त हो जाता है; तब मनुष्य अपनी मृत्यु. से भी नहीं डरता|
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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