 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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सेवा वही कर सकता है, जो अपने लिये कभी कुछ नहीं चाहता। सेवा करने के लिये धनादि पदार्थों की चाह तो कामना है ही, सेवा करने की चाह भी कामना ही है; क्योंकि सेवा की चाह होने से ही धनादि पदार्थों की कामना होती है। इसलिये अवसर प्राप्त हो और योग्यता हो तो सेवा कर देनी चाहिए, पर सेवा की कामना नहीं करनी चाहिये।
दूसरे को सुख पहुँचाकर सुखी होना, 'मेरे द्वारा लोगों को सुख मिलता है'- ऐसा भाव रखना, सेवा के बदले में किंचित् भी मान-बड़ाई चाहना और मान-बड़ाई मिलने पर राजी होना वास्तव में भोग है, सेवा नहीं कारण कि ऐसा करने से सेवा सुख-भोग में परिणत हो जाती है अर्थात सेवा अपने सुख के लिये हो जाती है।
अगर सेवा करने में थोड़ा भी सुख लिया जाय, तो वह सुख धनादि पदार्थों में महत्व-बुद्धि पैदा कर देता है, जिससे क्रमश: ममता और कामना की उत्पत्ति होती है।
'मैं किसी को कुछ देता हूं'- ऐसा जिसका भाव है, उसे यह बात समझ में नहीं आती तथा कोई उसे आसानी से समझा भी नहीं सकता कि सेवा में लगने वाले पदार्थ उसी के हैं, जिसकी सेवा की जाती है। उसी की वस्तु उसे ही दे दी, तो फिर बदले में कुछ चाहने का हमें अधिकार ही क्या है? उसी की धरोहर उसी को देने में एहसान कैसा ? अपने हाथों से अपना मुख धोने पर बदले में क्या हम कुछ चाहते हैं?
 
 
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