प्राणी को मनुष्य जन्म का लाभ ईश्वर कृपा से ही प्राप्त होता है, यह बात माननी पड़ेगी। कारण कि पशु आदि योनियों में पुण्य-पाप फल का आधार 'कर्म' होता ही नहीं। अर्थात मनुष्य जन्म होने का कोई ओर कारण भगवत्कृपा के सिवा नहीं माना जा सकता।
परंतु मनुष्य जन्म होने के बाद का जो मार्ग है, उसका अनुसरण करने के लिये मनुष्य का यह कर्तव्य है कि वह अपने पुण्य कर्म के द्वारा ईश्वरानुग्रह प्राप्त करें। दुर्लभ मानव जन्म प्राप्त करके भी मनुष्य आत्म मुक्ति के साधन में यत्नवान् नहीं होता उससे बड़ा आत्महंता और कौन हो सकता है?
वैदिक धर्म के अनुसार निज-निज वर्णाश्रम धर्म के अनुसार नित्य नैमित्तिक कर्मो का आचरण करना ही ईश्वरदान है, यह जानकर जो इसका पालन करता है, उसे ईश्वर का प्रसाद अवश्य प्राप्त होता है। उससे चित्त शुद्ध और स्थिर होता है तब ईश्वरीय प्रसाद से ही शास्त्र श्रवण के द्वारा विवेक की प्राप्ति होती है और उसके फलस्वरूप वैराग्य उत्पन्न होकर मोक्ष की तीव्र इच्छा मन में पैदा होती है।
मोक्ष की ऐसी तीव्र इच्छा रखने वाले मुमुक्षु को भगवती प्रसाद से सद्गुरु प्राप्त होते हैं। गुरू धारण करने से यह प्रसाद प्राप्त होता है और उससे असम्भावना और विपरीत भावना रूप प्रतिबंध कट जाते हैं। यह अनादि स्वप्न भ्रम रूप संसार अपने आप ही निरस्त नहीं होता।
केवल एक ईश्वर और सद्गुरू दोनों के प्रसाद से ही इसका लाभ होता है, और यह सद्गुरु प्रसाद उन्हीं की अनन्य भाव से सेवा करके ही प्राप्त किया जा सकता है. अन्य किसी उपाय से यह संभव नहीं तथा 'गुरौ' इत्यादि श्रुति वाक्यों से भी यही प्रतिपन्न होता है|
गुरुप्रसाद अथवा ईश्वर प्रसाद सत्य को शक्तिपात से प्राप्त किया जा सकता है और शक्तिपात के साथ महावाक्य का उपदेश होने से शिष्य कृतकार्य हो जाता है। ऐसे शक्ति सम्पन्न सदगुरु की शरण में जाने से कुण्डलिनी का उसी क्षण जागरण हो उठता है। गुरु यदि श्रोत्रिय हो ब्रह्मनिष्ठ हों, पर उनमें यदि शक्तिपात करने की इच्छा युक्त अथवा समर्थ न हो, तो शिष्य को उसी क्षण साक्षात्कार नहीं हो सकता।
"गुरु-भक्ति वाला शिष्य शक्तिपात रहित होकर भी गुरु वाक्य के श्रवण, मनन, नित्य ध्यान से प्रतिबंधित होने पर भी कर्म बंधन से मुक्त होता है उसे तत्वज्ञान की प्राप्ति होती है, 'तत्वज्ञान से माया का आवरण हटता है, अन्य किसी कर्म से यह नहीं होता।
यह तत्वज्ञान गुरु सदा अधिकारी शिष्य को ईश्वराज्ञा से देता है। ऐसे शक्तिपात पूर्वक ज्ञानोपदेश करने वाले सद्गुरु की महिमा सभी धर्मों के ग्रंथों में कोट-कोट गायी गयी है। 'इस त्रिभुवन में ज्ञानदाता सद्गुरु के लिये देने योग्य कोई दृष्टान्त ही नहीं दिखता। उन्हें पारसमणि की उपमा दें तो यह भी कम ही जंचती है, कारण, पारस लोहे को सोना तो बना देता है, परंतु पारस नहीं बना सकता।
सद्गुरु चरण युगल का आश्रय करने वाले शिष्य को सद्गुरू निज साम्य (अपने समान) ही बना डालते हैं, इसलिये सद्गुरु की कोई उपमा नहीं है।
सुप्रसिद्ध महात्मा श्री एकनाथ महाराज कृत 'एकनाथ भागवत' में यदु अवधूत संवाद के अंतर्गत श्री दत्तात्रेय द्वारा यदु को आलिंगन कर स्पर्श दीक्षा देकर आत्मबोध कराने के प्रसंग का बड़ा ही हृदय को स्पर्श करने वाला वर्णन है- 'यह सद्गुरू कथा तुमसे परमार्थ सिद्धि के लिये कही।' यह कहकर 'अवधूत ने बड़े ही हर्षोत्फुल्ल अन्तःकरण से राजा यदु को अपने हृदय से लगा लिया और दोनों एक ही आत्मबोध में एक हो गये।
जीव ने जीव को पहचान लिया और सारी सृष्टि में आनंद का समुद्र उमड़ आया। उसकी वाणी की गति रुक गयी, उलटकर बोलना क्या है? वह भी भूल गया। हृदय भुवन में जब यह महान हर्ष नहीं समाया तब वह स्वेद (पसीना) बनकर बाहर उमड़ पड़ा।
नेत्राकाश में आनन्द के मेघ छा गये ओर ज्ञानानंद की वर्षा होने लगी, अहंकार की बेड़ियां टूट गई, भवार्णव के उस पार पहुंच गए। प्रगाढ़ अज्ञान- अविद्यापार जो विजय पायी उसी की वैजयंती खड़ी थी रोमांच के रूप में। अपनी देह के प्रति मोह भाव समूल नष्ट हो गया, इसी से देह के सब अंग कांपने लगे।
संकल्प विकल जाता रहा, मन का मनोरथ मिट गया। जीव भाव जो कुछ था, वह सम्पूर्ण राजा यदु ने श्री सद्गुरू अवधूत के चरणों में समर्पित कर दिया।
अवधूत स्वयं दत्तात्रेय हैं, उन्होंने राजा यदु को आलिंगन कर इस प्रकार अपने स्वरूप का बोध कराया। गुरू कब कैसे मिलेंगे, इसी चिंता में जनार्दन स्वामी के दिन बीत रहे थे। सद्गुरु चिंतन करते-करते यहां तक हालत हो गयी कि स्वामी तीनों अवस्थाएँ भूल गये। भगवान भाव के ही तो भूखे हैं, उन्होंने इनके सुदृढ़ अनन्य भगवान भाव को जाना।
श्रीगुरू दत्तात्रेय सामने आकर प्रकट हुए ओर उनके मस्तक पर उन्होंने अपना हाथ रखा। हाथ के रखते ही जनार्दन स्वामी का चिन्मय स्वरूप जाग उठा, प्रपंच के मूल का मिथ्यात्व नष्ट हुआ। देह के रहते हुए भी विदेहता उन्हें तत्वतः प्राप्त हो गयी।
गृहस्थाश्रम को बिना छोड़े, कर्म रेखा को बिना लांघे अपना सब काम करते रहने की अवस्था में ही उन्हें वह बोध मिला, जो नहीं मिला करता। और उसके मिलते ही मन जगत का गया, मन में जो भी विचार आता जगत के प्राणियों के लिये ही आता था, उसमें मनपना कुछ रह ही न गया, वह अवस्था उनमें न समा सकी ओर वे मूर्छित हो गये।
तब उन्हें सचेत करके श्रीगुरू ने कहा कि, 'प्रेम सत्व की अवस्था है, इसे पी जाओ और निर्बोध अवस्था में स्थित होकर रहो।' जनार्दन स्वामी उठे ओर श्रीगुरू की पूजा करके उनके चरणों पर गिरे। बस, इसी अवकाश में गुरू दत्तात्रेय योगमाया का आश्रय कर अदृश्य हो गये।' 'यह दृष्टि जिस पर चमकती है, अथवा यह कृपाबिन्दु जिसे स्पर्श करता है, वह होने को तो चाहे जीव ही क्यो न हो पर बराबरी करता है महेश्वर श्रीशंकर की।
Guru Siyag Mantra :
1 Hour Mantra With Guru prarthana
सदगुरुदेव श्री सियाग के सिद्ध योग ध्यान की विधि :
1- सर्वप्रथम आरामदायक स्थिति में बैठें।
2- दो मिनट तक सदगुरुदेव श्री रामलाल जी सियाग के चित्र को खुली आँखों से ध्यानपूर्वक देखें।
3- यदि आप किसी बीमारी, नशे या अन्य परेशानी से पीड़ित हैं, तो गुरुदेव से, उससे, मुक्ति दिलाने हेतु अन्तर्मन से करुण पुकार करें।
4- मन ही मन 10 या 15 मिनट के लिए गुरुदेव से अपनी शरण में लेने हेतु प्रार्थना करें।
5- उसके बाद आंखें बंद करके आज्ञा चक्र (भौंहों के बीच) जहां बिंदी या तिलक लगाते हैं, वहां पर गुरुदेव के चित्र का स्मरण करें।
6- इस दौरान मन ही मन गुरुदेव द्वारा दिए गए मंत्र का मानसिक जाप बिना जीभ या होंठ हिलाए करें।
7- ध्यान के दौरान शरीर को पूरी तरह से ढीला छोड दें, आँखें बन्द रखें, चित्र ध्यान में आये या न आये उसकी चिन्ता न करें। मन में आने वाले विचारों की चिन्ता न करते हुए मानसिक जाप करते रहें।
8- ध्यान के दौरान कंपन, झुकने, लेटने, रोने, हंसने, तेज रोशनी या रंग दिखाई देने या अन्य कोई आसन, बंध, मुद्रा या प्राणायाम की स्थिति बन सकती है, इससे घबराएं नहीं, इन्हें रोकने का प्रयास न करें। यह मातृशक्ति कुण्डलिनी शारीरिक रोगों को ठीक करने के लिये करवाती है।
9- समय पूरा होने के बाद आप ध्यान की स्थिति से सामान्य स्थिति में आ जाएंगे।
10- यौगिक क्रियाएं या अनुभूतियां न होने पर भी इसे बंद न करें। रोजाना सुबह-शाम ध्यान करने से कुछ ही दिन बाद अनुभूतियां होना प्रारम्भ हो जाएंगी।
11- ध्यान करते समय मंत्र का मानसिक जाप करें तथा जब ध्यान न कर रहे हों तब भी खाते-पीते, उठते-बैठते, नहाते धोते, पढते-लिखते, कार्यालय आते जाते, गाडी चलाते अर्थात हर समय ज्यादा से ज्यादा उस मंत्र का मानसिक जाप करें। दैनिक अभ्यास में १५-१५ मिनट का ध्यान सुबह-शाम करना चाहिये।
Sadhako Ke anubhav
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मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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