Published By:धर्म पुराण डेस्क

शिव संकल्प क्या है ? जानिए 

सृष्टि की रचना अक्षर पुरुष के संकल्प से हुई है। संकल्प का अर्थ होता है दृढ़ इच्छा शक्ति।

इच्छा का स्थान रचना करने वाले के 'मन' में होता है। इच्छा अथवा संकल्प का क्रियान्वयन मन के द्वारा ही होता है, परंतु इस संकल्प की रचना चित् के अंदर, चित्त की वृतियों(सतो गुण, रजो गुण, तमो गुण) के द्वारा होती है।

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शिव संकल्प' का अर्थ है- शुभ संकल्प, श्रेष्ठ संकल्प तथा जीव के कल्याण के लिए किया जाने वाला उत्कृष्ट परिष्कृत संकल्प। एक कर्म तो वह है, जिसके द्वारा जीव संसार में आवागमन में बना रहता है, जिसे प्रवृति मार्ग कहते हैं। दूसरा मार्ग शिव संकल्प का निवृत्ति का मार्ग है जिससे जीव का इस संसार से आवागमन मिट जाता है, अर्थात वह मोक्ष को प्राप्त करता है।

'शिव' इस ब्रह्मांड के सबसे ऊंचे देव है। ये सभी जीवो का संहार करते हैं तथा काल पुरुष(ईश्वर) के प्रतिनिधि हैं। इनका मूल स्थान अक्षर पुरुष के धाम में 'सदाशिव' के रूप में है, जिसे महाकाल भी कहा जाता है।

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शिव संकल्प का तात्पर्य है कि मानव जीव के मन के अंदर जो संकल्प उदय होता है उसमें सदा शिव की ऊर्जा समाहित हो जाती है। मानव जीव के स्थूल शरीर का मन पहली सीढ़ी है, दूसरी सीढ़ी नारायण का मन है, तीसरी सीढ़ी काल पुरुष का मन है तथा चौथी और अंतिम सीढ़ी अक्षर पुरुष का मन है।

अक्षर पुरुष का मन 'ज्योति स्वरूप' है, वह अखंड एवं प्रकाश पुंज है। इस ज्योति स्वरूप रूपी मन की उर्जा काल पुरुष के मन में प्रवेश करती है। इसी प्रकार यह ऊर्जा, नारायण से होती हुई मानव जीव के मन में प्रवेश करती है। अक्षर पुरुष के मन को 'आत्मा ' कहा गया है बाकी प्रत्येक मन को इस आत्मा की छाया रूप 'चेतन' कहा गया है।

जब मानव जीव का चेतन रुपी मन, आत्मा से जुड़ जाता है तो उसके द्वारा जो संकल्प होते हैं, वे परिष्कृत हो जाते हैं। जिससे उनके मोक्ष के द्वार खुल जाते हैं। इसी को 'शिव संकल्प' कहते हैं। जिस मानव जीव का संकल्प परिष्कृत हो जाता है। उसका मन, रहनी तथा चित्त की वृतियां भी परिष्कृत (विशुद्ध) हो जाती है। उसका अभ्यास ऐसा हो जाता है कि उसके द्वारा किए गए संपूर्ण कर्म गुलाब के फूल की तरह हो जाते हैं, जो संत तथा दुर्जन दोनों को समान रूप से सुगंध देता है।

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यजुर्वेद के 34 वें अध्याय में शिव संकल्प का वर्णन है। महामति प्राणनाथ जी ने भी अपनी निम्न वाणी में 'रहनी' के विषय में वर्णन किया है।

"कदी केहेनी कही मुख से, बिन रहेनी न होवे काम।

रहेनी रूह पोहोंचावही, केहेनी लग रहे चाम।। "

कदाचित अपने मुख से उच्च ज्ञान की बात कर भी ली जाए किंतु उसको आचरण में लाए बिना कार्य सिद्ध नहीं होता है। श्रेष्ठ आचरण के द्वारा ही आत्मा जागृत हो सकती है और कथन मात्र जिह्वा तक ही सीमित रह जाता है।

"केहेनी सुननी गई रात में, आया रहेनी का दिन।

बिन रेहेनी केहेनी कछुए नहीं, होए जाहेर अरस बका तन।।"

थोडा ज्ञान को कहने एवं सुनने की परंपरा अज्ञानमयी रात्रि में ही चलती रही है। अब तो ब्रह्म ज्ञान का उदय होने पर पवित्र आचरण का समय आ गया है। आचरण के बिना मात्र कथन का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। पवित्र आचरण से ही दिव्य परमधाम तथा पर आत्मा की पहचान हो सकती है।

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