आत्मा और परमात्मा-
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति॥
दो पक्षी हैं सुंदर पंखों वाले, साथ-साथ जुड़े हुए, एक दूसरे के सखा। एक ही वृक्ष को सब ओर से घेरे हुए हैं वे उनमें से एक वृक्ष के फल को बड़े स्वाद से चख रहा है, दूसरा बिना चखे सब कुछ साक्षी भाव से देख रहा है।
जीवात्मा तथा परमात्मा ही ये दो पक्षी हैं, प्रकृति वृक्ष है, कर्मफल वृक्ष का फल है, जीवात्मा को कर्मफल मिलता है, परमात्मा प्रकृति में आसक्त हुए बिना साक्षी भाव से जीव और प्रकृति को देख रहा (दृष्टि मात्र) है।
स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्।
कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधात् शाश्वतीभ्यः समाभ्यः॥
वह (परमात्मा) सब जगह गया हुआ (व्यापक) है। वह शुद्धता की चरम सीमा है, उसका शरीर नहीं, वह छिद्र रहित, नस नाड़ी रहित, सब मलों व विकारों से रहित, पापों से रहित परमात्मा इस प्रकृति रूपी काव्य का कवि और मनीषी है, सर्वत्र व्याप्त और स्वयंभू (जिसका कोई बनाने वाला नहीं) है। वह इस सृष्टि की जैसी चाहिए वैसी रचना करता है, निरंतर लगातार अनंतकाल से वह बिना व्यवधान के सृजन कर रहा है।
जीव वाणी ..
जीवात्मा-
अरसमरूपगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसदं।
जाणलिंग जीवमणिहिदट्ठठाणे।।
जो रस रहित है, रूप रहित है, गंध रहित और अव्यक्त है, जो शब्द-रूप नहीं है और जो किसी भौतिक चिन्ह से भी जाना नहीं जा सकता और न जिसका कोई निर्दिष्ट आकार ही है उस चैतन्य गुण विशिष्ट द्रव्य को जीव कहते हैं।
प्रवचनसार-
जो खलु संसारयो जीवो ततो दु होदि परिणामो।
परिणामादो कम्म कम्मादो होदि गदिसु गदि।।
जो जीव संसार में स्थित है अर्थात् जन्म और मरण के में चक्र पड़ा हुआ है, उसके राग रूप और द्वेष रूप परिणाम होते हैं, उन परिणामों से नये कर्म बंधते हैं, और कर्मों से गतियों में जन्म लेना पड़ता है।
गदिमधि गदस्त देहो देहादो इंदियाणि जायंते।
तेहि दु विसयगहणं तत्तो रागो व दोसो वा।।
जन्म लेने से शरीर मिलता है, शरीर में इंद्रियां होती है, इन्द्रियों से जीव विषयों को ग्रहण करता है। विषयों को ग्रहण करने से इष्ट विषयों से राग और अनिष्ट विषयों से द्वेष करता है।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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