अध्यात्म क्या है? भीतर की प्रकृति का अवलोकन करे कि मेरे जीवन में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की वृत्ति है, या इससे विपरीत वृत्तियाँ मेरे जीवन मे उभर रही हैं।
जिसके जीवन में राग-द्वेष की वृत्तियाँ उभर रही है, तो उसका जीवन पशु से भी बदतर है। पशु में कम समझ होने से वह इतना खतरनाक कभी नही हो सकता जितना कि मनुष्य बन जाता है। मनुष्य यह विचार करे कि मै पशु से निम्न स्थिति में हूँ या उच्च स्थिति में?
चिन्तन करने की यह धारा जब सम्यक दिशा में गतिशील बनेगी, तब यह स्वत ही स्पष्ट हो जायेगा कि हमारी प्रत्येक की आत्मा अरिहंत सिद्ध के समान है। इस प्रकार सम्यक् बोध होने के बाद प्रत्येक मनुष्य के अन्तर मे "मुझे अरिहंत और सिद्ध तुल्य बनना है" यह दिव्य भावना जागृत हो एवं तदनुरूप साधना में उसका जीवन समर्पित बने, तब अशांति की स्थिति उसके जीवन में कभी भी प्रवेश नहीं कर सकेगी।
अशांति के झूले में झूलते हुए अधिकांश व्यक्ति शांति प्राप्ति के उपाय के खोजी बने हुए है, वे चाहते हैं कि हमें कोई ऐसा मंत्र मिल जाए, जिसको आजमाने से हमारा जीवन शांतिमय वन जाए, पर वे नहीं जानते कि शांति का सृजन करने वाला मंत्र कोनसा है?
दुनिया का सर्वश्रेष्ठ मंत्र नवकार है। पर यह ध्यान रखना है कि अन्दर में यदि विषय की आग जलती रहे, और ऊपर से मंत्र का जाप करते रहे, तो उससे कभी शांति नहीं मिल सकेगी।
एक रूपक है - एक भाई महाराज के पास गया, और अपनी समस्या का समाधान करने के लिए कहा, तब महाराज ने कहा- भाई तुम जिस समस्या का समाधान चाह रहे हो, मैं उसका समाधान कर सकता हूँ। लेकिन मैं पूछता हूँ कि इस समस्या के समाधान के बाद कोई दूसरी समस्या तो नही उठेगी।
तो वह बोला, उठेगी और फिर उसका समाधान करने के लिए आऊंगा ! तब योगी ने समझाया इससे तो अच्छा है कि तुम सभी समस्याओं का समाधान कैसे किया जाए, यह जान लो तो फिर तुम अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं ही कर सकोगे।
अंधे को एक स्थान से दूसरे स्थान से जाने के लिये बार-बार सहारा देने की बजाय उसके आँखे लगा दी जाय तो वह स्वत: ही चल लेगा। वैसे ही तुम समस्या के समाधान का मूल ही पकड़ लो और वह है शरीर के भीतर मे रहने वाली आत्मा की सम्यक् निर्णायक शक्ति।
अध्यात्म जीवन मे अपना चरण क्षेप करो, यह मानकर चलो कि हर आत्मा में अनंत ज्ञान शक्ति है, पर वह ज्ञान चेतना ज्ञानावरणीय कर्म से अवृत्त है। इससे ही वह अपनी ज्ञान शक्ति का रसपान नहीं कर पा रहा है, पर जैन दर्शन मानता है कि बन्धन की निर्मात्री आत्मा है तो बंधन को तोड़ने वाली भी आत्मा ही है।
अत' आत्मा सत्पुरुषार्थं के माध्यम से बंधन से मुक्ति की प्रक्रिया को समझकर अपने आवृत्त ज्ञान को अनावृत्त करने का प्रयास करती है, तो उसके जीवन की समस्त समस्याओं का समाधान हो सकता है। वह अनन्त शांति की अभिव्यक्ति कर सकती है, कारण कि केवल ज्ञान पाने की क्षमता प्रत्येक मुमुक्षु आत्मा में है।
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