ज्ञान का शिरोमणि स्वर योग ज्ञान नई पीढ़ी के लिए सर्वथा अछूती वस्तु है। कुछ एक योगाभ्यासियों को छोड़कर अन्य प्रत्येक के लिए इसका ज्ञान और अभ्यास करवाना आज आवश्यक है। क्योंकि इससे अधिक सहज, सरल, कल्याणकारी एवं उपयोगी ज्ञान अन्य कोई नहीं है।
इस विज्ञान की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह थोड़े से अभ्यास मात्र से ही सिद्ध किया जा सकता है। दूसरे योग के प्रारम्भिक चरणों में बिना किसी गुरु आदि के झंझटों के भी कार्य चलाया जा सकता है। इसमें विपरीत प्रभाव की लेशमात्र भी सम्भावना नहीं है।
स्वर ज्ञान का मूल मंत्र है सहज विश्वासी, सरल हृदय और एकाग्रचित्तता का धनी होना। यदि व्यक्ति यह तीनों नहीं अपना सकता तो उसके लिए यह विज्ञान निरर्थक है। वह यह अध्याय पढ़कर व्यर्थ समय न गंवाए। चंचल चित्त और प्रायः विक्षुब्ध रहने वाले व्यक्ति, किसी न किसी स्वार्थ से प्रेरित होकर अथवा हिंसा, प्रतिहिंसा और भय से दूसरे अनहित सोचकर इस ज्ञान का दुरुपयोग करने वाले व्यक्ति भी स्वर योग ज्ञान में सिद्धहस्त नहीं हो सकते।
प्रत्येक अभ्यासी को शान्त, सदाचारी, शुद्ध, सात्विक, कृतज्ञ और दृढ़ संकल्प होना चाहिए। अन्य विद्याओं के विपरीत स्वर योग में यह अनोखी विचित्रता और विलक्षण गुण निहित है कि उपरोक्त गुण सम्पन्न व्यक्ति के निष्ठापूर्वक अभ्यास प्रारम्भ कर देने से उनमें स्वतः आवश्यक गुणों का प्रादुर्भाव होने लगता है। स्वर साधक के लिए अन्य साधनाएँ जैसे तत्व साधना, प्राण साधना, त्राटक, छाया साधना, ध्यान योग आदि
स्वयं ही सहज प्रतीत होने लगती है। स्वर साधक आत्मिक संकेत ग्रहण करने लगते हैं और वह ईश्वर प्रदत्त शक्ति का सदुपयोग करने में लीन हो जाते हैं।
दैनिक जीवन में स्वर योग को प्रायोगिक रूप में प्रयोग करते रहने से व्यक्ति के समस्त दुर्भाग्य दूर होने लगते हैं अर्थात् वह धीरे-धीरे समस्त परेशानियों से मुक्त हो जाता है। वह रोगो का शमन कर पूर्ण रूप से स्वास्थ्य लाभ कर सकता है। दुर्घटनाओं से उसकी रक्षा हो सकती है। वह मनोवांछित सिद्धि प्राप्त कर सकता है। अपने अन्दर ऐसी शक्ति पैदा कर सकता है कि किसी का भी सम्मोहन कर अपने अनुरूप उससे कार्य करवा ले। पति-पत्नी स्वर साधकर समागम करें तो मनोवांछित पुत्र अथवा पुत्री प्राप्त कर सकते हैं।
प्रारम्भिक और उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे अनेक छात्र-छात्राओं को मैंने स्वर साधना करवाकर चमत्कारिक रूप से अधिक सफल होते हुए देखा है। उनकी स्मृति में विलक्षण परिवर्तन आया है। ऐसे ही जीवन के किसी भी महत्वपूर्ण कार्य पर प्रस्थान करने से पूर्व स्वर ज्ञान के अनुकूल अनुसरण करने पर अनेक आशातीत फल प्राप्त होते देखे गए हैं।
कहा गया है कि स्वर योग का ज्ञानी ही परम योगी है। मृत्युलोक में ऐसा व्यक्ति प्रत्येक स्थान पर पूजनीय है। दुर्भाग्य उससे कौसो दूर भागता है। वह सुख शान्ति का अनुभव करते हुए परम आनन्द को प्राप्त होता है और यहीं पर सुख के लिए दर-दर भटकने वाली उसकी जिज्ञासा का अन्त हो जाता है। यदि कहें कि पूर्णता को प्राप्त होने की अवस्था तक पहुँच जाता है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
प्रत्येक व्यक्ति जीवित अवस्था में दिन और रात निरन्तर सांस लेता रहता है। सांस लेने और छोड़ने के मध्य एक स्वाभाविक अन्तर बना रहता है। श्वसन क्रिया में हमें लगता है कि नासिका के दोनों छिद्रों से समान रूप से क्रिया हो रही है। परन्तु ऐसा नहीं होता..!!
यदि थोड़े से अभ्यास के बाद नासिका छिद्रों पर ध्यान दें तो पता चलेगा कि श्वसन क्रिया दोनों छिद्रों से बराबर न होकर अदल-बदलकर होती रहती है। सांस के बहाव की स्थिति कभी-कभी दोनों छिद्रों से समान भी हो जाती है। कहने का तात्पर्य यह है कि स्वरों का प्रभाव नासिक छिद्रों से बदलता रहता है। पूर्णतया यह स्वाभाविक प्रक्रिया है। यदि अभ्यास किया जाए तो सरलता से स्वरों के बदलने को साधा जा सकता है अर्थात् हम अपनी इच्छानुसार स्वर चला सकते हैं। स्वर के अनेक नाम प्रचलित हैं। कोई इसे "प्राण" कहता है तो कोई "जीवन पारा"। योग शास्त्र श्वास निश्वास को "प्राण वाहिनी नाड़ी" कहता है। कई विद्वान इसे "प्रकाश सिद्धान्त" कहते हैं। स्वर से स्थूल शरीर में प्राणशक्ति का संचार होता है इसलिए इसे प्राण शक्ति ही कहना अधिक उचित है। प्राणायाम द्वारा ही प्राणों की साधना होती है और प्राण साधना से टेलीपैथी सिद्ध की जाती है।
प्राण शक्ति विषय में जितना भी प्रवेश करेंगे विषय जटिल और गम्भीर होता जाएगा। विषय की एक अवस्था तक पहुँचने के बाद योग्य गुरु की कृपा और सानिध्य अनिवार्य हो जाता है, क्योंकि आगे चलकर सहारे के बिना बढ़ना असम्भव है और गुरु से अच्छा सहारा कोई दे नहीं सकता। इस अध्याय में जितना में लिख रहा हूँ उतना अध्ययन 'स्वान्तः सुखाय' कोई भी सरलता और सहजता से स्वयं ही कर सकता है।
जो वायु हमारी नाक के दाहिने छिद्र में प्रवाहित होती है उसे "दाहिना स्वर, सूर्य स्वर" अथवा "पिंगला" नामों से जाना जाता है। इसी प्रकार से बायीं नासिका छिद्र से प्रवाहित होने वाले स्वर को "बांया स्वर", "चन्द्र स्वर" अथवा "इडा" नामों से सम्बोधित करते हैं। इन्हें क्रमशः "सूर्य नाड़ी और चन्द्र नाडी" भी कहा जाता है। स्पष्ट शब्दों में इसे इस तरह समझ लीजिए कि यदि वायु का प्रवाह दायीं नासिका छिद्र से हो रहा है अथवा बाएं से, तो उसे कहेंगे कि क्रमशः सूर्य स्वर चल रहा है या चन्द्र स्वर चल रहा है।
नासिका छिद्रों में स्वर का प्रवाह स्वाभाविक रूप से बदलता रहता है। यह परिवर्तन लगभग एक-एक घण्टे के
अन्तराल से होता रहता है। अर्थात् यदि एक घण्टे सूर्य स्वर चल जाता है तो दूसरे घण्टे में चन्द्र स्वर स्वतः चलने लगता है और तीसरे घण्टे में पुनः सूर्य स्वर प्रारम्भ हो जाता है। जब दांयी से बांयी अथवा बांयी से दांयी नासिका छिद्र से वायु प्रवाह बदलता है तो उस समय कुछ काल के लिए दोनों स्वरों में समान प्रवाह होता है। स्वर के बदलने के समय को 'स्वर का सन्धिकाल' कहते हैं। स्वर के समान प्रवाह को सुषुम्ना नाड़ी' कहते हैं।
ईश्वर की सृष्टि विलक्षण, अद्भुत और अनन्त है। प्रभु की विचित्रता और पराकाष्ठा का जीता जागता उदाहरण मनुष्य है। यह एक ऐसा यन्त्र है जिसके माध्यम से अनेक ज्ञान संचित किए जाते हैं। स्वर के पीछे के ज्ञान को आज तक विज्ञान भी नहीं समझ पाया है। हमारे ऋषियों और योगियों को इसका पूर्ण ज्ञान था। वह पूर्ण रूपेण स्वर ज्ञानी थे और उनके चरणों में लक्ष्मी और समस्त ऐश्वर्य विराजते थे।
यदि नाड़ी के अनुसार समस्त क्रिया कलाप किये जायें तो सौभाग्य की प्राप्ति होती ही है। किस नाड़ी के प्रवाह के समय कान-कौन से कार्य करें कि हमारा दुर्भाग्य दूर हो, यह संक्षिप्त में वर्णन किया जा रहा है
सूर्य स्वर- श्वास-निश्वास को थोड़ा सा साध कर ध्यान नासाग्र पर केन्द्रित करिये थोड़े से अभ्यास में ही आप पहचानने में सिद्धहस्त हो जायेंगे कि कौन-सा स्वर चल रहा है। यदि एकाग्रता से स्वर का पता न चले तो बारी-बारी से हाथ की ऊँगली द्वारा नाक के छिद्रों को क्रमश बन्द करके तेजी से श्वास छोड़िए, इस प्रकार दोनों छिद्रों में से अधिक प्रवाह वाले छिद्र का आप अनुमान लगा लेंगे। यदि दोनों तुलना करने पर समान दिखाई दें तो समझिए कि सुषुम्ना नाड़ी चल रही है। संयम के साथ ध्यान लगाते रहे फिर यह सब अत्यन्त सरल हो जायेगा।
सूर्य स्वर प्रवाह काल में निम्नलिखित कार्यों का चयन करिए, अवश्य ही सफल होंगे। क्रय-विक्रय, औषधि सेवन, गृह प्रवेश, यात्रा, व्यायाम, विरोध, मदिरा पान, खेती, दान, युद्ध, बैरी को दण्ड देना, अपने से बलवान को वश में करना, विष का उपचार भूत उतारना, लेन-देन इनके अतिरिक्त सूर्य में उच्च साधनाएं भी शीघ्रता से सिद्ध हो जाती हैं। यह साधनाएं है-मोहन, मारण, उच्चाटन, वीरता, मन्त्रोपासना, यन्त्र-तन्त्र सम्बन्धी साधना, भूत, प्रेत, बेताल, यक्षिणी की साधना, पटकर्मों की साधना तथा स्तम्भन सम्बन्धी आदि साधनायें।
चन्द्र स्वर चन्द्र स्वर, इडा अर्थात् बायें स्वर में निम्नलिखित कार्य प्रारम्भ किए जायें तो पूर्ण लाभ प्राप्त करने की सम्भावना बढ़ जाती है। जैसे-व्याधि चिकित्सा, दिव्य औषधियों का सेवन, पौष्टिक कर्म, अन्न और लकड़ी से सम्बन्धित वस्तुओं का संग्रह, पात्रा, दान, विवाह, आश्रम प्रवेश, यज्ञ, मित्रता, विद्यारम्भ, देव दर्शन के लिए प्रस्थान, देव मूर्तियों की स्थापना, मन्त्र सिद्ध करना, दीक्षा लेना, मोक्ष प्राप्ति हेतु कर्म करना, द्रव्य संचय, बन्धुबान्धयों से मिलने जाना, गीत, नृत्य तथा शास्त्र सम्मत कार्य, अपने अधिकारी के पास जाना, घर में पशु लाना, राज मन्दिर अथवा जलाशय बनवाना, आभूषण धारण करना, तिलक लगाना (विशेष कर जब सम्मोहन के लिए लगाना हो) तथा गुरु आदि की पूजा करनी हो आदि ।
शून्य स्वर शून्य स्वर, रिक्त अथवा जीव स्वर को सम स्वर भी कहते हैं। सम स्वर की अवस्था में प्राण सुषुम्ना नाड़ी में प्रवाहित होता है। शून्य स्वर के समय सांसारिक कार्य नहीं करने चाहिए। इस काल में दुष्ट कर्म और योगाभ्यास ही करना चाहिए। मोक्ष प्राप्ति सम्बन्धी कार्य करने के लिये समकाल सर्वश्रेष्ठ माना गया है। यह काल काम, क्रोध, मोह, लोभ और अहंकार पर विजय प्राप्त करने के लिए बहुत ही प्रभावकारी है। इस काल में कहीं की भी यात्रा सर्वथा वर्जित मानी गई है।
स्वर के बहाव का समय जिस प्रकार से प्रकृति की प्रत्येक वस्तु का समय निश्चित है ठीक उसी प्रकार से स्वर के बहने का समय भी निश्चित है दिन, रात, सूर्य ग्रह, नक्षत्र तथा मौसम आदि का प्रकृति ने एक नियम निर्धारित किया है। सब कुछ उसी क्रम में निरन्तर घटता रहता है। स्वर के बहाव का समय सूर्योदय से निर्धारित किया जाता है। वैसे स्वर के बहाव को लेकर जनेक मत हैं। कुछ मानते हैं कि स्वरों का बहना निश्चित नहीं है। कुछ की मान्यता है कि यदि व्यक्ति पूर्ण रूप से स्वस्थ है तब ही उसकी सांस एक सुनिश्चित क्रम में बहेगी अन्यथा उसका कोई क्रम नहीं रहेगा। मेरी अपनी स्वयं की मान्यता है कि स्वर का कोई क्रम नहीं होता। शरीर में ऊर्जा का सामंजस्य बना रहे उसी के अनुरूप गरम अथवा टण्डे अर्थात् सूर्य और चन्द्र स्वर का बहना प्राकृतिक नियम से स्वतः होता रहता है।
कुछ आधारभूत नियमों के अनुसार तिथि और शुक्ल तथा कृष्ण पक्षों में सूर्य उदय के समय क्रमशः चन्द्र और सूर्य स्वरों का प्रवाह प्रारम्भ होना माना गया है। फिर उत्तरोत्तर एक-एक घण्टे के अन्तराल से स्वर परिवर्तित होते रहते हैं। इस प्रकार पूरे दिनभर में 12 घण्टे सूर्य नाड़ी और 12 घण्टे चन्द्र नाड़ी में प्रवाह होता है। इस नियम में परिवर्तन होने अर्थात् सूर्योदय के समय से विपरीत नाड़ी में प्रवाह होने से दुर्भाग्य, हानि, नाश, मृत्यु, व्याधि आदि की सम्भावनाएं बढ़ जाती है। इसीलिए ऋषि मुनि विपरीत स्वर प्रवाह होते ही उसे अपने अनुकूल प्रवाहित करने लगते थे और दुर्भाग्य से कोसों
दूर रहते थे। स्वर बहने का समय कुछ भी हो परन्तु यह अकाट्य है कि विपरीत स्वर बहने से अनिष्ट की संभावना बढ़ जाती है।
स्वर प्रवाह अनुकूल करना
स्वर के प्राकृतिक नियमानुसार यदि वांछित स्वर की प्रतीक्षा में बैठे रहेंगे तब तो गाड़ी ही छूट जाएगी। कुछ सरल प्रयोगों द्वारा हम स्वर को अपनी इच्छानुसार वांछित नाड़ी में प्रवाहित करवाकर मनोवांछित फल की प्राप्ति कर सकते हैं।
प्रयोग (1) स्वच्छ रूई की इतनी बड़ी गोली बना लें जिससे कि सुविधापूर्वक नासिका छिद्र में डालकर स्वर प्रवाह अवरुद्ध किया जा सके। अब जिस स्वर को चलाना है उससे विपरीत
नासिका छिद्र में रूई की गोली फँसा दीजिए। स्वतः ही खुली
नासिका छिद्र से स्वर प्रवाह प्रारम्भ हो जाएगा।
प्रयोग - (2) ध्यान लगाकर देखिये कि आपका कौन सा स्वर चल रहा है। माना कि आपका चन्द्र अर्थात् बांया स्वर चल रहा है और आप चाहते हैं कि आपका सूर्य अर्थात् दांया स्वर भी चलने लगे। आपका जो भी स्वर चल रहा है आप उसके विपरीत स्वर को ऊँगली से दबाकर चल रहे स्वर से श्वास ऊपर खींचे तथा जो नहीं चल रहा है अथवा कहें कि जिसको आपने ऊँगली से बन्द कर लिया था उससे ऊँगली हटाकर अब उससे श्वास बाहर छोड़ें। यही क्रिया आप दोहराते रहें। शीघ्र ही आपका वांछित स्वर चलने लगेगा।
प्रयोग - ( 3 ) जिस स्वर को चलाने की आप आवश्यकता अनुभव कर रहे हैं उसके विपरीत करवट से आप लेट जाने । उदाहरण के लिए मान लीजिए आपको दायां स्वर चलाना है तो आप बांए करवट से पूरे शरीर के बांए अंग पर जोर देते हुए पाँच मिनट तक निश्चल लेटे रहें। पूरा ध्यान आप दांए स्वर पर ही केन्द्रित करके रहें। पाँच मिनट में ही आपका दांया स्वर चलने लगेगा।
प्रयोग - (4) में अपने कार्यों के लिए यह प्रयोग अधिक सुविधाजनक मानता हूँ क्योंकि इस प्रयोग से कहीं भी और कैसी भी परिस्थिति में वांछित स्वर चलाया जा सकता है। इस प्रयोग के लिए दृढ़ इच्छा शक्ति और चित्त की एकाग्रता की आवश्यकता है। अपना चित्त नासिका छिद्रों के सबसे संवेदनशील भाग पर लगाइए। एक पल में ही आप प्रवाहित हो रहे स्वर को परख लेंगे। अब जिस स्वर को चलाना हो सारा ध्यान उसके संवेदनशील भाग पर केन्द्रित करके श्वास-निश्वास इतनी लें कि वह वहीं तक ही सीमित होती लगे। इस प्रकार से आपका वांछित स्वर चलने लगेगा। इस प्रयोग में लम्बे अभ्यन की आवश्यकता है परन्तु एक बार यदि अभ्यास हो जाये तो यह प्रयोग सबसे सरल लगने लगेगा।
इस प्रकार अनुकूल स्वर के कार्य सुगमता से प्रारम्भ किए जा सकते हैं। साधारणतः जब भी विपरीत स्वर प्रारम्भ हो जाए तब समझ लीजिए दुर्भाग्य पीछा करने वाला है। अतः शुभ स्वर ही चलायें।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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