जीवन में हम सब कामना और इच्छाओं से बंधे हुए हैं लेकिन कुछ कामनाएं बहुत जरूरी होती है लेकिन ज्यादातर कामनाएं व्यर्थ होती हैं। धर्म शास्त्र कहते हैं गृहस्थ-जीवन ठीक नहीं, साधु हो जाएं, एकान्त में चले जाएं। ऐसा विचार करके मनुष्य कार्य को तो बदलना चाहता है, पर कारण 'कामना' को नहीं छोड़ता। उसे छोड़नेका विचार ही नहीं करता।
यदि वह कामनाको छोड़ दे तो उसके सब काम अपने-आप ठीक हो जायें। जब मनुष्य जीनेकी कामना तथा अन्य कामनाओं को रखते हुए मरता है, तब वे कामनाएँ उसके अगले जन्मका कारण बन जाती हैं। तात्पर्य यह है कि जब तक मनुष्य में कामना रहती है, तब तक वह जन्म-मरण रूप बन्धन में पड़ा रहता है।
इस प्रकार बाँधने के सिवाय कामना और कुछ काम नहीं आती। जब मनुष्य का जड़ पदार्थों की तरफ आकर्षण होता है, तभी उनकी कामना उत्पन्न होती है। कामना उत्पन्न होते ही विवेक दृष्टि दब जाती है और इन्द्रिय-दृष्टि की प्रधानता हो जाती है। इन्द्रियाँ मनुष्य को केवल शब्दादि विषयों के सुख-भोगमें ही लगाती हैं।
पशु-पक्षियों की भी प्रवृत्ति इन्द्रियों से मिलनेवाले सुख तक ही रहती है परन्तु कामना से विवेक ढक जानेके कारण मनुष्य इन्द्रियजन्य सुख के लिये पदार्थों की कामना करने लगता है और फिर पदार्थोंके लिये रुपयों की कामना करने लग जाता है।
इतना ही नहीं उसकी दृष्टि रुपयोंसे भी हटकर रुपयों की गिनती (संग्रह) में हो जाती है। फिर वह रुपयोंकी गिनती बढ़ाने में ही लग जाता है। निर्वाह मात्र के रुपयों की अपेक्षा उनका संग्रह अधिक पतन करने वाला है और संग्रहकी अपेक्षा भी रुपयोंकी गिनती महान पतन करने वाली है।
गिनती बढ़ाने के लिये वह झूठ, कपट, धोखा, चोरी आदि पाप-कर्मों को भी करने लग जाता है और गिनती बढ़ने पर उसमें अभिमान भी आ जाता है, जो आसुरी सम्पत्ति का मूल है। इस प्रकार कामना के कारण मनुष्य महान पतन की ओर चला जाता है। इसलिये भगवान इस महान पापी कामका अच्छी तरह नाश करने की आज्ञा देते हैं।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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