 Published By:अतुल विनोद
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दीपावली की पूजा-आराधना में विघ्न डालने वाले? शादी विवाह में उत्सव के रंग को अव्यवस्था और कानफोडू ध्वनि के साथ सेहत से जुड़े खतरों की आशंकाओं से आनंद को छिन्न भिन्न करने वाले, पर्यावरण को बहुत बुरी तरह प्रभावित करने वाले, इन पटाखों पर देश में पूरी तरह प्रतिबंध क्यों नहीं लगता?
पटाखे और आतिशबाजी भारतीय पुरातन संस्कृति का हिस्सा कभी नहीं रहे...
ना तो वह दीपावली के उत्सव का अभिन्न अंग हैं न ही विवाह संस्कार का हिस्सा।
कुछ सौ साल पहले इंट्रोड्यूस हुए इन पटाखों का कारोबार करने वाले लोग कौन हैं?
किसको इसका फायदा मिलता है? कैसे इसे सनातन संस्कृति का हिस्सा बना लिया गया?
क्यों गोला बारूद को शादी विवाह, जन्मोत्सव और दीपावली आदि का अभिन्न हिस्सा मानने की अंधश्रद्धा पनपी?
जो यह विचार किए बगैर कहते रहते हैं कि हम दीपावली पर पटाखे फोड़ेंगे ही, शादी में आतिशबाजी करेंगे ही, क्या वे यह दावे से कह सकते हैं कि विस्फोटक आने से पहले धर्म संस्कृति में उत्सव बिना गोला बारूद (पटाखों) के मनाए जाने की परंपरा नहीं रही?
क्या वे यह नहीं जानते कि दीपावली का त्यौहार उत्सव के साथ पूजा-पाठ और साधना आराधना के जरिए उस महत्वपूर्ण रात में धार्मिक शक्तियां (अष्ट लक्ष्मी प्राप्ति, कुंडलिनी जागृत, शक्ति संचय, दैवीय ऊर्जा प्राप्ति) अर्जित करने का समय होता है और उस पूजा आराधना में पटाखे सबसे बड़ी बाधा होते हैं? रात भर चलने वाले पटाखे आराधना को छिन्न भिन्न कर देते हैं| आप रात में एक मिनट भी ध्यान नहीं लगा सकते क्योंकि पटाखे देर रात तक फोड़े जाते हैं।
इसके बाद जो जहरीला धुआं छूटता है वह न जाने कितने लाखों लोगों का गला घोटता है! कितने पशु पक्षी कीट पतंगे, स्वान आदि सहम जाते हैं, लाखों प्रजातियाँ नष्ट हो जाती हैं, करोड़ों सूक्ष्म जीवों का पूरा होलोग्राम फट जाता है, जीवात्मायें भी छिन्न भिन्न हो जाती हैं| कई दिनों तक प्रकृति दम घुटता रहता है। अस्थमा आदि के मरीज असहनीय वेदना का शिकार होते हैं, बच्चों में डर का अंतहीन प्रोग्राम इंस्टॉल हो जाता है.
ये सिर्फ दीपावली पर नहीं होता शादी-विवाह, जन्मोत्सव, क्रिकेट आदि में विजय का अवसर, हर सुखद अवसर को हम प्रकृति को हताहत करने लाखों जीवात्माओं को मारने का मौक़ा बना लेते हैं| ये दीखता नहीं लेकिन होता है| किसी उत्सव पर पटाखे फोड़ना आवश्यक नहीं। इसके अलावा पटाखों का क्या उपयोग है?
इतिहास बताता है कि भारत में पटाखे या आतिशबाजी मुगलों की देन है. मुगलवंश के संस्थापक बाबर के देश में आने बाद ही यहां बारूद का इस्तेमाल होने लगा. बारूद की उत्पत्ति 9वीं शताब्दी में चीन में हुई थी. पटाखे बनाने की विद्या में इसका उपयोग कुछ समय बाद शुरू हुआ. लेकिन मंगोल चीन पर अपने हमलों के दौरान बारूद के उपयोग से परिचित हो गए. इस तकनीक को मध्य एशिया, पश्चिम एशिया में वर्धमान भूमि और सुदूर पूर्व में कोरिया और जापान तक ले गए.जब मंगोलों ने भारत में प्रवेश करना शुरू किया था तो वह इस ज्वलंत तकनीक को अपने साथ लाए थे.15वीं सदी की शुरुआत तक बारूद की तकनीक बमबार्ड ले जाने वाले चीनी व्यापारी जहाजों के माध्यम से दक्षिण भारत तक पहुंच गई थी.
पुनर्विचार हो और हर स्तर पर नकारात्मकता छोड़ने वाले पटाखे और आतिशबाजी के गोला बारूद के उत्पादन को पूर्णतः प्रतिबंधित किया जाए। अन्यथा पेटलावद, हरदा जैसे हादसे होते रहेंगे| लोगों की जान जाती रहेगी, प्रकृति का दम घुटता रहेगा| प्रतिबद्ध लोग स्वयं भी लगा सकते हैं| उत्सवों को प्राकृतिक ढंग से मनाकर, प्रकृति के विनाश के दंड से बचाव, जेब को राहत, कष्ट पाने वाले जीव जंतुओं मनुष्यों की बद्दुआओ से बचाव|
अतुल विनोद
 
                                मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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